– डॉ. मयंक चतुर्वेदी
दुनिया की प्रमुख परामर्श कंपनी अर्न्स्ट एंड यंग (ईवाई) की हालिया बिजनेस इंटेलिजेंस रिपोर्ट और भारतीय रिज़र्व बैंक की विस्तृत समीक्षा ने यह स्पष्ट कर दिया है कि आने वाले दो दशक भारत के लिए निर्णायक साबित होंगे। ईवाई का आकलन है कि वर्ष 2038 तक भारत क्रय शक्ति समता (Purchasing Power Parity – PPP) के आधार पर दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होगा और इस दौरान वह अमेरिका, जापान और जर्मनी जैसे देशों को पीछे छोड़ देगा। यह अनुमान केवल आँकड़ों का खेल नहीं बल्कि उस गहरे संरचनात्मक परिवर्तन का परिणाम है जो भारत ने पिछले एक दशक में किए हैं।
इसी के साथ एक रिपोर्ट भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की भी सामने आई है, जो यह बता रही है कि किस प्रकार उसकी लचीली मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण प्रणाली ने भारत को कोविड महामारी, रूस-यूक्रेन युद्ध और आपूर्ति संकट जैसे वैश्विक झटकों के बीच भी स्थिर बनाए रखा। इन दोनों रपटों का मिलाजुला संदेश यह है कि भारत का आर्थिक उत्थान केवल अल्पकालिक चक्रीय गति में तेजी का परिणाम नहीं बल्कि दीर्घकालिक और टिकाऊ विकास की कहानी है।
युवा जनसंख्या बना रही रही है भारत को शक्तिशाली
भारत की ताकत उसकी युवा जनसंख्या है। वर्ष 2025 तक देश की औसत आयु केवल 28.8 वर्ष होगी। यह स्थिति कम से कम दो दशकों तक भारत को अद्वितीय लाभ देगी, क्योंकि जब दुनिया के कई देश वृद्धावस्था और श्रमशक्ति की कमी से जूझ रहे होंगे, तब भारत के पास विशाल युवा कार्यबल होगा। यह वर्ग न केवल उत्पादन और सेवा क्षेत्र में योगदान देगा बल्कि उपभोग भी बढ़ाएगा, जिससे घरेलू बाजार मजबूत होगा। युवा आबादी निवेश और बचत की प्रवृत्ति को भी बढ़ाएगी, जो दीर्घकालिक पूँजी निर्माण के लिए अत्यंत आवश्यक है।
भारत सरकार का राजकोषीय अनुशासन भी इस यात्रा को गति दे रहा है। 2024 में ऋण-जीडीपी अनुपात 81.3 प्रतिशत था और सरकार का लक्ष्य है कि 2030 तक इसे घटाकर 75.8 प्रतिशत पर लाया जाए। यह संकेत वैश्विक निवेशकों को भरोसा देता है कि भारत केवल विकास की गति पर ही नहीं बल्कि स्थिरता पर भी ध्यान दे रहा है। पूँजीगत व्यय में लगातार वृद्धि, विशेषकर सड़क, रेल, बंदरगाह और डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर पर, आने वाले वर्षों में भारत की उत्पादकता और प्रतिस्पर्धात्मकता को नए आयाम दे रही है।
ये तीन शक्तियां हैं भारत के पास- युवा कार्यबल, घरेलू माँग, सुधारों की निरंतरता
यदि वैश्विक तुलना की जाए तो चीन दुनिया की सबसे बड़ी पीपीपी अर्थव्यवस्था है लेकिन वह तेजी से वृद्ध हो रही आबादी और भारी कर्ज़ की समस्या से जूझ रहा है। अमेरिका का लचीलापन अभी भी बना हुआ है लेकिन उसका ऋण-जीडीपी अनुपात 120 प्रतिशत से ऊपर जा चुका है और उसकी दीर्घकालिक वृद्धि की संभावनाएँ सीमित हो रही हैं। जर्मनी और जापान दोनों ही जनसांख्यिकीय गिरावट और वैश्विक व्यापार पर अत्यधिक निर्भरता से प्रभावित हैं। इन सबके बीच भारत अलग खड़ा है। उसके पास युवा कार्यबल है, घरेलू माँग है और सुधारों की निरंतर प्रक्रिया है। यही कारण है कि अंतरराष्ट्रीय संस्थान भविष्यवाणी कर रहे हैं कि आने वाला दौर भारत का होगा।
भारत केवल आँकड़ों की ताकत से नहीं बल्कि तकनीकी और औद्योगिक छलांग से भी अपनी स्थिति मजबूत कर रहा है। प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव यानी पीएलआई योजनाएँ इलेक्ट्रॉनिक्स, फार्मा, टेक्सटाइल और ऑटोमोबाइल जैसे क्षेत्रों में उत्पादन बढ़ा रही हैं। साथ ही कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई), अर्धचालक निर्माण और स्वच्छ ऊर्जा जैसे क्षेत्रों में निवेश से भारत भविष्य की औद्योगिक क्रांति का अहम केंद्र बन सकता है। यह विकास केवल शहरी भारत तक सीमित नहीं रहेगा बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में भी रोजगार और आय के नए अवसर पैदा करेगा।
दूसरी ओर, आरबीआई के आंकड़े कह रहे हैं कि 2016 में भारत ने लचीली मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण प्रणाली अपनाई जिसमें चार प्रतिशत लक्ष्य तय किया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि भारत ने वैश्विक आपूर्ति संकटों के बीच भी मुद्रास्फीति को अपेक्षाकृत नियंत्रित रखा। विकसित देशों तक में कोविड और युद्ध के कारण महँगाई की दरें दहाई अंकों तक पहुँच गईं लेकिन भारत में औसत मुद्रास्फीति पाँच से छह प्रतिशत के भीतर रही। यह सफलता केवल मौद्रिक नीति के कारण नहीं बल्कि सरकार और आरबीआई के बीच तालमेल की वजह से संभव हुई। एक ओर रिजर्व बैंक ने दरों और तरलता का प्रबंधन किया तो दूसरी ओर सरकार ने खाद्य और ईंधन की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए आपूर्ति-पक्ष कदम उठाए।
मुद्रास्फीति पर नियंत्रण बना भारत की ताकत
इस अनुभव ने दुनिया को यह संदेश दिया कि भारत की नीतिगत विश्वसनीयता उच्च स्तर पर है। यही कारण है कि कई विकासशील देश भारत के इस मॉडल को ‘बेस्ट प्रैक्टिस’ मानने लगे हैं। यहाँ तक कि जहाँ खाद्य और ऊर्जा का हिस्सा उपभोग टोकरी में बहुत अधिक है, वहाँ भी भारत ने मुद्रास्फीति पर नियंत्रण दिखाकर यह साबित किया कि सही ढाँचे और अनुशासन से बड़ी चुनौतियों का सामना किया जा सकता है।
इस सकारात्मक परिदृश्य के बीच अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की टैरिफ नीति ने एक नई बहस छेड़ दी है। अमेरिका ने भारत से निर्यात होने वाले ज्यादातर सामान पर 50% का भारी टैक्स लगा दिया है, जबकि पिछले साल यह सिर्फ 3% था। इससे कपड़े, जूलरी, झींगा, कालीन और फर्नीचर जैसे उद्योगों पर असर पड़ना स्वभाविक है। ट्रंप के इस टैरिफ से केवल 30% निर्यात बच पाया है, जिसमें स्मार्टफोन, दवाएं और पेट्रोलियम उत्पाद शामिल हैं। उनका दावा है कि इससे अमेरिका के उद्योग सुरक्षित रहेंगे और नौकरियाँ बचेंगी। लेकिन अधिकांश विशेषज्ञ मानते हैं कि इस नीति से भारत पर दीर्घकालिक कोई बड़ा असर नहीं होगा, उल्टे इसका बोझ अमेरिका की अर्थव्यवस्था पर ही पड़ेगा।
अमेरिका टैरिफ का नहीं दिखेगा भारत पर खास असर
भारत के लिए असर सीमित इसलिए रहेगा क्योंकि उसका निर्यात अब बहुत विविधीकृत है। वित्त वर्ष 2025 में अब तक भारत का कुल निर्यात 825 अरब डॉलर पार रहा, जिसमें 438 अरब डॉलर माल और 387 अरब डॉलर सेवाएँ थीं। खास बात यह है कि सेवाओं का हिस्सा लगातार बढ़ रहा है और यह उच्च तकनीकी और ज्ञान आधारित क्षेत्रों से आता है, जिन पर टैरिफ का सीधा असर नहीं होता। फिर भारत के पास बाजार विविधीकरण, पीएलआई योजनाएँ और मुक्त व्यापार समझौते जैसे कई विकल्प मौजूद हैं। इसके विपरीत अमेरिका पर इसका नकारात्मक असर इसलिए अधिक होगा, क्योंकि जब आयात पर ऊँचे शुल्क लगाए जाते हैं तो अंततः इसकी कीमत उपभोक्ताओं को चुकानी पड़ती है। वस्तुओं की लागत बढ़ती है, माँग घटती है और अमेरिकी कंपनियों की प्रतिस्पर्धात्मकता प्रभावित होती है।
टैरिफ नीति का दीर्घकालिक नुकसान अमेरिकी अर्थव्यवस्था को अधिक
फेडरल रिज़र्व और कई स्वतंत्र अध्ययन पहले ही चेतावनी दे चुके हैं कि टैरिफ नीति का दीर्घकालिक नुकसान अमेरिकी अर्थव्यवस्था को उठाना पड़ेगा। ऐसे में यह कहना ग़लत नहीं होगा कि ट्रंप की यह रणनीति उलटी अमेरिका को ही भारी पड़ सकती है। भारत के लिए यह टैरिफ युद्ध एक अवसर भी है। जब वैश्विक सप्लाई चेन में असंतुलन पैदा होता है तो नए बाजार और साझेदारियाँ बनती हैं। यदि भारत अपनी उत्पादन क्षमता और लॉजिस्टिक्स दक्षता को और मजबूत करता है तो वह कई देशों के लिए चीन का विकल्प बन सकता है। यह स्थिति भारत की वैश्विक स्थिति को और भी मज़बूत करेगी।
इन तमाम पहलुओं से स्पष्ट है कि भारत की ताकत दोहरी है। एक ओर तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है और दूसरी ओर स्थिरता व लचीलापन। यही मेल भारत को वैश्विक परिदृश्य में अलग पहचान देता है। आने वाले समय में भारत न केवल दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनेगा बल्कि सतत और समावेशी विकास का मॉडल भी प्रस्तुत करेगा।
कुल मिलाकर कहना यही होगा कि भारत की आर्थिक यात्रा अब केवल विकास दर की कहानी नहीं रही। यह अब संरचनात्मक बदलाव, नीतिगत स्थिरता और वैश्विक जिम्मेदारी की कहानी है । ईवाई की रिपोर्ट ने दीर्घकालिक तस्वीर उजागर की है, आरबीआई ने वर्तमान की स्थिरता का भरोसा दिया है और ट्रंप की टैरिफ नीति ने यह साफ कर दिया है कि भारत बाहरी झटकों से जूझने में सक्षम है। आने वाले दशक भारत के लिए ‘अमृत काल’ हैं। उम्मीद यही है कि ये वर्ष भारत के लिए आर्थिक उन्नति के साथ ही वैश्विक व्यवस्था में भारत की नई भूमिका तय करने वाला साबित होगा। फिलहाल तो यही दिखाई दे रहा है।
(Udaipur Kiran) / डॉ. मयंक चतुर्वेदी
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