इस्लामाबाद: पाकिस्तान और अफगान तालिबान शासन के बीच इस्तांबुल में हुई वार्ता विफल हो गई है। यह वार्ता पिछले महीने बॉर्डर पर हुई हिंसक झड़पों को रोकने के उद्देश्य से हो रही थी लेकिन दोनों पक्षों में चीजें और ज्यादा खराब हो गई हैं। दोनों पक्षों ने एक-दूसरे पर कई गंभीर आरोप लगाए हैं। इस्तांबुल में बातचीत रुकने के बाद दोनों ओर से जिस तरह के आक्रामक बयान आए हैं, उससे डूरंड रेखा पर युद्ध के बादल मंडराने लगे हैं। इससे सवाल उठ रहे हैं कि अगर लड़ाई छिड़ी तो पाकिस्तान को किस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा।
अफगानिस्तान-पाकिस्तान के सैन्य मामलों के जानकार अहमदुल्लाह अर्चीवाल ने द डिप्लोमैट में लिखे लेख में कहा है कि पाकिस्तानी सेना तालिबान से काफी ज्यादा मजबूत है। ऐसे में पहली नजर में लगता है कि लड़ाई छिड़ने पर वह फायदा में रहेगा। यह मानने के कई कारण हैं कि तालिबान के साथ युद्ध में पाकिस्तान बहुत कुछ हासिल कर सकता है। हालांकि तालिबान के साथ लंबे समय तक चलने वाले युद्ध से पाकिस्तान को अच्छे परिणाम नहीं मिलेंगे।
पाकिस्तान की सबसे बड़ी बाधाअर्चीवाल का कहना है कि तालिबान के साथ अपने युद्ध को वैध बनाना पाकिस्तान के लिए एक बड़ी बाधा है। अतीत में पाकिस्तान ने अफगानिस्तान और कश्मीर में अपने छद्म युद्धों को वैध बनाने के लिए धर्म का सहारा लिया। हालांकि अब तालिबान के खिलाफ अपने युद्ध को वैध बनाने के लिए पाकिस्तान सरकार के लिए धर्म का इस्तेमाल करना मुश्किल होता जा रहा है।
तालिबान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्तकी ने हाल ही में भारत स्थित देवबंद मदरसे का दौरा किया। यह दक्षिण एशियाई सुन्नी मुसलमानों की बड़ी धार्मिक संस्था है। मुत्तकी की यात्रा ने तालिबान को यह दावा करने का हौसला दिया है कि उन्हें ज्यादा धार्मिक मान्यता है। ऐसे में प्रमुख पाकिस्तानी धार्मिक विद्वानों के लिए तालिबान के साथ धर्म के आधार पर युद्ध को उचित ठहराना लगभग असंभव होगा।
पाकिस्तानी राजनेता बंटेतालिबान के खिलाफ युद्ध को लेकर पाकिस्तानी राजनेता बंटे हुए हैं। इनमें धार्मिक नेता और कुछ मुख्यधारा के राजनीतिक दल भी शामिल हैं। ये अफगानिस्तान के साथ पाकिस्तान के युद्ध का खुलकर विरोध कर रहे हैं। विरोध करने वालों में इमरान खान की पीटीआई के अलावा अवामी नेशनल पार्टी और पख्तूनख्वां मिल्ली अवामी पार्टी शामिल हैं।
कई पाकिस्तानी राजनीतिक दल अफगानिस्तान की सीमा से लगे पाकिस्तानी प्रांत खैबर पख़्तूनख्वां (केपी) में पाकिस्तानी सेना के अभियान का विरोध कर रहे हैं। इनमें सबसे प्रमुख है पीटीआई है, जो केपी में सरकार का नेतृत्व कर रही है। प्रांत में आतंकवाद-रोधी अभियानों को लेकर पार्टी का शहबाज शरीफ सरकार और सैन्य प्रतिष्ठान के साथ टकराव चल रहा है।
अपनों को कैसे मनाएगा पाकतालिबान के खिलाफ अपनी जंग जीतने के लिए पाकिस्तान के लिए धार्मिक वैधता और राजनीतिक समर्थन हासिल करना जरूरी है। फिलहाल उसे इनमें से कुछ भी मिलता हुआ नहीं दिख रहा है। पाकिस्तान का तालिबान शासन के विरोधियों का समर्थन मिलने का अनुमान भी गलत साबित हुआ है। ज्यादातर अफगानों ने पाकिस्तान के हमलों की आलोचना की है। वे इसे तालिबान पर नहीं, बल्कि अफगानिस्तान पर हमला मानते हैं।
डूरंड रेखा के पाकिस्तानी हिस्से में रहने वाले पश्तूनों ने भी अफगानिस्तान की धरती पर पाकिस्तानी हमले का समर्थन नहीं किया है। पाकिस्तान के दो प्रांतों केपी और बलूचिस्तान का व्यापार अफगानिस्तान पर निर्भर है। ये भी एक मुश्किल का सबब है। केपी के व्यापारी तनाव के खिलाफ है। साफ है कि लंबे समय तक युद्ध चला तो पाकिस्तान को घरेलू स्तर पर प्रतिरोध का सामना करना पड़ेगा।
पाकिस्तान की माली हालतपाकिस्तान की घरेलू स्थिति अच्छी नहीं है। देश बढ़ती गरीबी, घटते निवेश और अस्थिर अर्थव्यवस्था से जूझ रहा है। अपनी अर्थव्यवस्था की खराब हालत के कारण पाकिस्तान तालिबान के साथ लंबे समय तक युद्ध नहीं झेल सकता है। ऐसे में फिलहाल मजबूत सेना होते हुए भी पाकिस्तान नहीं चाहेगा कि वह लंबे युद्ध में उलझ जाए।
अफगानिस्तान पर बीते महीने हवाई हमले करने से पहले पाकिस्तान ने यह अंदाजा लगाया होगा कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय उसके साथ खड़ा होगा। ऐसा ऐसा नहीं हुआ है। युद्ध पर प्रतिक्रिया देने वाले देशों ने युद्धविराम का आह्वान किया है। इसके अलावा अफगानिस्तान का दुर्गम इलाका पाकिस्तान के लिए जमीनी जीत को मुश्किल बना देगा। यह युद्ध पाकिस्तान को भारी नुकसान पहुंचा सकता है, जिससे उबरने में उसे काफी वक्त लग सकता है।
अफगानिस्तान-पाकिस्तान के सैन्य मामलों के जानकार अहमदुल्लाह अर्चीवाल ने द डिप्लोमैट में लिखे लेख में कहा है कि पाकिस्तानी सेना तालिबान से काफी ज्यादा मजबूत है। ऐसे में पहली नजर में लगता है कि लड़ाई छिड़ने पर वह फायदा में रहेगा। यह मानने के कई कारण हैं कि तालिबान के साथ युद्ध में पाकिस्तान बहुत कुछ हासिल कर सकता है। हालांकि तालिबान के साथ लंबे समय तक चलने वाले युद्ध से पाकिस्तान को अच्छे परिणाम नहीं मिलेंगे।
पाकिस्तान की सबसे बड़ी बाधाअर्चीवाल का कहना है कि तालिबान के साथ अपने युद्ध को वैध बनाना पाकिस्तान के लिए एक बड़ी बाधा है। अतीत में पाकिस्तान ने अफगानिस्तान और कश्मीर में अपने छद्म युद्धों को वैध बनाने के लिए धर्म का सहारा लिया। हालांकि अब तालिबान के खिलाफ अपने युद्ध को वैध बनाने के लिए पाकिस्तान सरकार के लिए धर्म का इस्तेमाल करना मुश्किल होता जा रहा है।
तालिबान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्तकी ने हाल ही में भारत स्थित देवबंद मदरसे का दौरा किया। यह दक्षिण एशियाई सुन्नी मुसलमानों की बड़ी धार्मिक संस्था है। मुत्तकी की यात्रा ने तालिबान को यह दावा करने का हौसला दिया है कि उन्हें ज्यादा धार्मिक मान्यता है। ऐसे में प्रमुख पाकिस्तानी धार्मिक विद्वानों के लिए तालिबान के साथ धर्म के आधार पर युद्ध को उचित ठहराना लगभग असंभव होगा।
पाकिस्तानी राजनेता बंटेतालिबान के खिलाफ युद्ध को लेकर पाकिस्तानी राजनेता बंटे हुए हैं। इनमें धार्मिक नेता और कुछ मुख्यधारा के राजनीतिक दल भी शामिल हैं। ये अफगानिस्तान के साथ पाकिस्तान के युद्ध का खुलकर विरोध कर रहे हैं। विरोध करने वालों में इमरान खान की पीटीआई के अलावा अवामी नेशनल पार्टी और पख्तूनख्वां मिल्ली अवामी पार्टी शामिल हैं।
कई पाकिस्तानी राजनीतिक दल अफगानिस्तान की सीमा से लगे पाकिस्तानी प्रांत खैबर पख़्तूनख्वां (केपी) में पाकिस्तानी सेना के अभियान का विरोध कर रहे हैं। इनमें सबसे प्रमुख है पीटीआई है, जो केपी में सरकार का नेतृत्व कर रही है। प्रांत में आतंकवाद-रोधी अभियानों को लेकर पार्टी का शहबाज शरीफ सरकार और सैन्य प्रतिष्ठान के साथ टकराव चल रहा है।
अपनों को कैसे मनाएगा पाकतालिबान के खिलाफ अपनी जंग जीतने के लिए पाकिस्तान के लिए धार्मिक वैधता और राजनीतिक समर्थन हासिल करना जरूरी है। फिलहाल उसे इनमें से कुछ भी मिलता हुआ नहीं दिख रहा है। पाकिस्तान का तालिबान शासन के विरोधियों का समर्थन मिलने का अनुमान भी गलत साबित हुआ है। ज्यादातर अफगानों ने पाकिस्तान के हमलों की आलोचना की है। वे इसे तालिबान पर नहीं, बल्कि अफगानिस्तान पर हमला मानते हैं।
डूरंड रेखा के पाकिस्तानी हिस्से में रहने वाले पश्तूनों ने भी अफगानिस्तान की धरती पर पाकिस्तानी हमले का समर्थन नहीं किया है। पाकिस्तान के दो प्रांतों केपी और बलूचिस्तान का व्यापार अफगानिस्तान पर निर्भर है। ये भी एक मुश्किल का सबब है। केपी के व्यापारी तनाव के खिलाफ है। साफ है कि लंबे समय तक युद्ध चला तो पाकिस्तान को घरेलू स्तर पर प्रतिरोध का सामना करना पड़ेगा।
पाकिस्तान की माली हालतपाकिस्तान की घरेलू स्थिति अच्छी नहीं है। देश बढ़ती गरीबी, घटते निवेश और अस्थिर अर्थव्यवस्था से जूझ रहा है। अपनी अर्थव्यवस्था की खराब हालत के कारण पाकिस्तान तालिबान के साथ लंबे समय तक युद्ध नहीं झेल सकता है। ऐसे में फिलहाल मजबूत सेना होते हुए भी पाकिस्तान नहीं चाहेगा कि वह लंबे युद्ध में उलझ जाए।
अफगानिस्तान पर बीते महीने हवाई हमले करने से पहले पाकिस्तान ने यह अंदाजा लगाया होगा कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय उसके साथ खड़ा होगा। ऐसा ऐसा नहीं हुआ है। युद्ध पर प्रतिक्रिया देने वाले देशों ने युद्धविराम का आह्वान किया है। इसके अलावा अफगानिस्तान का दुर्गम इलाका पाकिस्तान के लिए जमीनी जीत को मुश्किल बना देगा। यह युद्ध पाकिस्तान को भारी नुकसान पहुंचा सकता है, जिससे उबरने में उसे काफी वक्त लग सकता है।
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