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व्यंग: आप दूर ही रहें, यह हमारा सावन है

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आखिरकार सावन के साथ मॉनसून का दिल भी पसीज ही गया। कहां तो भाई साब, हम दिल्लीवाले मनपसंद बीयर को तरस गए थे। दिल्ली के बाहर से लानी पड़ रही थी। और कहां अब ये झमाझम बारिश। माहौल बन गया, मजा आ गया। अभी मैं पार्क में घुसा ही था कि सामने दिखे सज्जन ने तपाक से कहा।



क्या मजा आ रहा है? पहले बिना पानी के ही द्वारका लबालब हो रहा था, अब जरा सी बारिश में गुड़गांव ऊभचूभ हो रहा है। करोड़ों करोड़ के घर पानी में इस तरह घिर गए, जैसे झील में किसी नौसिखिया आर्किटेक्ट ने डिजाइन कर दिया हो। पानी में तैरती महंगी कारें नहीं देखीं क्या आपने?



पर वह मुस्कुराते रहे। कहने लगे, पानी उतरने में कोई मजा नहीं है भाई साब। पानी न उतरे, इसीलिए तो गुड़गांव से बेंगलुरु तक पैसा बहाया जाता है पानी की तरह। मास्टर प्लान बनता है, प्लॉट कटते हैं, सड़कें और फ्लाईओवर बनते हैं। सारी कसरत पानी बचाने के लिए ही तो होती है। पानी गए न ऊबरे, मोती मानुस चून। आनंद लीजिए।



ये सज्जन मेरी सैर का मजा खराब करने पर तुल गए थे। मैंने दूसरा पॉइंट पकड़ा। आपने सुबह-सुबह शराब-वराब की बात क्यों की, वह भी सावन के महीने में? कुछ तो खयाल कीजिए भोले-भंडारी का। इस पवित्र महीने में लहसुन-प्याज, मांस-मदिरा खाने-पीने की बात तो दूर, इनका नाम भी नहीं लेना चाहिए। आपको पता नहीं है? मैंने उन्हें दबोच लिया।



वह हंसने लगे। सबका खयाल रखने वाले, सब पर आशीर्वाद बरसाने वाले भोले-भंडारी का नाम लेते हैं और यह न करो, उसे न छुओ, वह न खाओ, यह न पीयो का हल्ला भी मचाते हैं। वह तो जरा से प्रेम से भी प्रसन्न होने वाले देवों के देव ठहरे। पशु-पक्षी, नर-नारी से लेकर देव-दानव तक जब उन्होंने कोई भेद न माना, तो आप क्यों लहसुन-प्याज में अटके हुए हैं? ऐसा लगता है, आपका ज्यादा ध्यान इसी पर है, भोले-भंडारी में मन नहीं रमा रहे आप।



इतना कहकर वह ऐसे ठठाकर हंसे, जैसे उन्होंने ब्रह्मास्त्र चला दिया हो। पर मेरे पास भी कोई चाइनीज डिफेंस सिस्टम नहीं था। मैंने उन्हें झिड़का। क्या नास्तिक जैसी बातें कर रहे हैं। धर्म-कर्म भी कुछ होता है या नहीं। पूजा-पाठ के नियम नहीं मानेंगे, अलग-अलग राग अलापेंगे तो एकता कैसे बनेगी?



बात एकता की है या एकरूपता की? उनने पलट सवाल दाग दिया। और भोले-भंडारी तो ऐसे दयालु ठहरे कि अपवित्र को पवित्र करने में जरा भी देर न लगाएं। भाई साब, आप जो ये चीजें बता रहे हैं, उनसे अगर कोई भक्त अपवित्र हो भी गया तो देवाधिदेव नीलकंठ को मन से याद करे, उनकी कृपा से क्या वह फिर से पावन नहीं हो जाएगा? सब लोग एक तरह से चलें, एक तरह से खाएं-पीएं, एक स्वर में बोलें, एक ही बात मानें और यहां तक कि एक ही तरीके से पूजा-पाठ भी करें। चाहते क्या हैं आप? और किसी से नहीं, तो कम से कम भोले-भंडारी से तो सीखिए।



मैं जब तक जवाब देने के बारे में सोचता, वह अपनी बातों की झमाझम बारिश समेटकर तेजी से निकल गए। अगली बार मिले तो उन्हें कड़ा जवाब दूंगा। यह हमारा सावन है, हमारी पूजा है, ये कौन हुए सीख देने वाले?

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