आरएसएस-बीजेपी के इस दौर में एक दलित को हर दिन उत्पीड़न और अपमान के लिए तैयार रहना चाहिए, चाहे वह भारत के मुख्य न्यायाधीश हों या आईपीएस अधिकारी। यह टिप्पणी दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दू कॉलेज में इतिहास के प्रोफेसर रतन लाल की है। रतनलाल की यह टिप्पणी उस व्यवस्थागत भेदभाव के उनके निजी अनुभव का बयान है, जो उनकी पदोन्नति में भी बाधक बना, लेकिन तेवर वाला यह मुखर बुद्धिजीवी चुपचाप उत्पीड़न सह जाने वालों में से नहीं है। 52 वर्षीय आईपीएस अधिकारी वाई. पूरन कुमार की हालिया आत्महत्या का जिक्र करते हुए वह कहते हैं, “हमें झुकना नहीं चाहिए। हमें इस हमले का विरोध करना चाहिए। अपनी जान लेना कोई समाधान नहीं है।” उन्होंने एक सुसाइड नोट छोड़ा था जिसमें “घोर जाति-आधारित भेदभाव, लक्षित मानसिक उत्पीड़न, सार्वजनिक अपमान और अत्याचार” का आरोप लगाया गया था।
बिहार के मुजफ्फरपुर में जन्मे प्रोफेसर रतन लाल एक कार्यकर्ता और हाशिये के समुदायों के छात्रों के लिए धन जुटाने वाले भी हैं और ‘अंबेडकरनामा’ नामक एक यूट्यूब चैनल का संपादन भी करते हैं। नंदलाल शर्मा से बातचीत के कुछ अंश:
हाल ही की तीन घटनाएं याद आ रही हैं- सुप्रीम कोर्ट के अंदर मुख्य न्यायाधीश पर जूता फेंका गया, हरियाणा में एक दलित आईपीएस अधिकारी ने खुद को गोली मार ली और उत्तर प्रदेश के रायबरेली में भीड़ ने एक दलित युवक की पीट-पीटकर हत्या कर दी। आप इन घटनाओं को कैसे देखते हैं?
आरएसएस और बीजेपी से आप और उम्मीद भी क्या करते हैं? मुख्य न्यायाधीश पर हमला राज्य, संविधान और गणतंत्र पर हमला है। मुख्य न्यायाधीश के शांत रहने की तारीफ करके, प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि उन्होंने समझदारी से काम लिया। दरअसल, वह दलितों को समाज में उनकी जगह दिखा रहे हैं। अगर उन्हें कानून के राज की जरा भी चिंता होती, तो वह उस वकील के खिलाफ कार्रवाई सुनिश्चित करते जिसने ‘सनातन धर्म’ की रक्षा के नाम पर जूता फेंका था। न तो कोई एफआईआर दर्ज की गई, न ही उन लोगों के खिलाफ कोई कार्रवाई हुई जिन्होंने मुख्य न्यायाधीश की जातिगत पहचान पर सोशल मीडिया पर धमकी भरी भद्दी टिप्पणियां कीं और आपत्तिजनक मीम्स पोस्ट किए।
बाबासाहेब आम्बेडकर ने नेहरू से मतभेदों के चलते मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था। क्या रामदास अठावले (केन्द्र सरकार में सामाजिक न्याय मंत्री) ने मुख्य न्यायाधीश के अपमान पर इस्तीफा दिया? क्या जीतन राम मांझी या चिराग पासवान ने इसकी निंदा की?
पिछड़े समुदायों के लिए आरक्षण, भर्ती अभियान और छात्रवृत्ति के माध्यम से पिछली कांग्रेस सरकारों ने इन लोगों के उत्थान के लिए सकारात्मक कदम उठाए। हमारे प्रधानमंत्री अपनी ओबीसी पहचान का बखान करते हैं, भाजपा केन्द्रीय मंत्रिमंडल में ओबीसी मंत्रियों को शामिल करती है, लेकिन उन्होंने ओबीसी के लिए किया क्या है?
ऊंची जातियों, ब्राह्मणों (जो सामाजिक पदानुक्रम में सबसे ऊपर हैं) को यह समझ ही नहीं आ रहा है कि इस शासन-सत्ता से उन्हें कोई लाभ नहीं होने वाला है, आरएसएस-भाजपा संविधान और उसकी सभी गारंटियों के लिए अस्तित्व का खतरा हैं।
कुछ ब्राह्मण तो अच्छी कमाई कर सकते हैं, लेकिन जरा जाकर देखिए कि एनसीआर में कितने ब्राह्मण 15,000 से 20,000 रुपये या उससे भी कम तनख्वाह पर सुरक्षा गार्ड की नौकरी कर रहे हैं। मोदी ने किया क्या है, सिवाय इसके कि भारतीयों को अडानी ग्रुप के लिए 30,000 रुपये महीने पर काम करने के लिए मजबूर कर दिया? मुझे चार ओबीसी मंत्री मत दिखाइए, लोगों के लिए चार लाख सुरक्षित नौकरियां दिखाइए।
हाल ही में लखनऊ में आयोजित बीएसपी प्रमुख मायावती की जनसभा को आप किस तरह देखते हैं। वह उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार की प्रशंसा कर रही थीं, लेकिन कांग्रेस और समाजवादी पार्टी की आलोचना की और बिहार चुनाव में समर्थन की अपील की...
वह उतना ही अच्छा करेंगी, जितना आरएसएस-बीजेपी उन्हें करने देगी। उन्हें उनके एजेंडे से कोई वैचारिक समस्या नहीं है। वह उत्तर प्रदेश में बीजेपी के साथ कई बार सरकार में रह चुकी हैं। क्या बीएसपी ने ‘ब्रह्मा, विष्णु, महेश है / हाथी नहीं, गणेश है’ और ‘ब्राह्मण शंख बजाएगा / हाथी चलता जाएगा’ जैसे नारे नहीं गढ़े थे? इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि बीएसपी अब उत्तर प्रदेश तक ही सीमित रह गई है और उसका वोट शेयर पहले के 22-23 प्रतिशत से घटकर 9 प्रतिशत रह गया है।
दलितों के मायावती से निराश होने के वाजिब और पर्याप्त कारण हैं। क्या उन्होंने दलितों की स्थिति सुधारने के लिए एक भी राष्ट्रीय पहल की, अत्याचारों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन की तो बात ही छोड़ दीजिए? नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने दलितों को छात्रवृत्ति, मुफ्त शिक्षा, नौकरियों में आरक्षण, पेंशन, साहूकारों से राहत दिलाई... क्या उन्होंने कभी इसके लिए उनका शुक्रिया अदा किया है?
बिहार में नीतीश कुमार को ‘विकास पुरुष’ कहा जाता है। राज्य के दलितों को उनके प्रति कितना कृतज्ञ होना चाहिए?
नीतीश कुमार ने राज्य में कितने सार्वजनिक उपक्रम स्थापित किए हैं? कितने कॉलेज और विश्वविद्यालय खोले? रोजगार यहीं से तो पैदा होते हैं। उद्योग का क्या? बिहार में पहले 37 चीनी मिलें हुआ करती थीं। राज्य में एनडीए सरकार के लगभग 20 साल बीत जाने के बावजूद अब एक भी चालू नहीं है। दरभंगा में पेपर मिल थी, छपरा में रेलवे यार्ड था... वे कहां हैं? लालू प्रसाद ने भी अन्य पहलों के अलावा विश्वविद्यालय और रेलवे यार्ड स्थापित किए।
यह एनडीए ही है जिसने बिहार में शिक्षा को बदहाल कर दिया। एक समय था जब हर जिले में एक जिला स्कूल होता था, जिसे सबसे अच्छा माना जाता था, जहां गरीब और अमीर, दोनों तरह के लोग, डीएम/एसपी के बच्चे भी पढ़ते थे। पटना साइंस कॉलेज, पटना कॉलेज और एलएस कॉलेज मुजफ्फरपुर की गिनती सर्वश्रेष्ठ में होती थी। इनमें दाखिला नहीं मिल पाता था, तभी छात्र पढ़ाई के लिए दिल्ली जाते थे। आज क्या स्थिति है? क्या नेताओं और नौकरशाहों के बच्चे सरकारी स्कूलों में जाते हैं और क्या वे सरकारी अस्पतालों में इलाज करवाते हैं? छात्रवृत्ति और फेलोशिप का क्या हुआ?
कृपया मुझे यह मत बताइए कि आपने कितने दलित मंत्रियों, विधायकों और राजनेताओं को पदोन्नति दी है। यह विकास का आदर्श नहीं हो सकता।
क्या पहले हालात कुछ बेहतर थे?
आप जानते हैं कि कांग्रेस के जमाने में भी, या जब यूपीए सत्ता में थी, हम सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन और आंदोलन करते थे। लेकिन तब हमें कभी सताया नहीं गया। विश्वविद्यालयों में आरएसएस से जुड़े लोगों के साथ, अगर वे दूसरे मानदंडों पर खरे उतरते थे, तो अछूतों जैसा व्यवहार नहीं किया जाता था। वे समाजवादी, वामपंथी पृष्ठभूमि के लोगों के साथ-साथ कांग्रेस के करीबी लोगों के साथ भी स्पेस साझा करते थे। उनके राजनीतिक झुकाव पदोन्नति, अवकाश, शोध करने या किताब लिखने के लिए छुट्टी लेने जैसे मामलों में आड़े नहीं आते थे। लेकिन आजकल आपको अपना हक पाने के लिए आरएसएस-भाजपा के चरणों में गिरना पड़ता है।
पहले मेडिकल या इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला मिल जाता था और फीस कुछ हजार रुपये सालाना होती थी। अब तो प्रवेश पाने के लिए भी करोड़ों रुपये चाहिए। किसके पास करोड़ों रुपये हैं? संविधान समान अवसरों का वादा करता है- नौकरी, शिक्षा, पेंशन... भाजपा ने ये सब छीन लिया है। शिक्षा बेहद महंगी हो गई है और नौकरियां लगातार कम होती जा रही हैं।
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