जो तुगलकी फरमान था, वह अब शातिर तिकड़म में बदल चुका है। यानी राष्ट्रव्यापी गहन पुनरीक्षण का आदेश, बिना सोचे-समझे लोगों को वोट देने के अधिकार से वंचित करने वाला एक भोथरा औजार बदलकर अब एक ऐसा हथियार बन गया है, जो चुन-चुनकर लोगों को बाहर करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। इसका नया संस्करण चुनाव आयोग और उसके अधिकारियों के लिए थोड़ा आसान बना है और मतदाताओं के लिए भी कुछ हद तक सुविधा बढ़ी है, लेकिन एसआईआर की मूल प्रवृत्ति अब भी वोटबंदी ही है। नागरिकता-सत्यापन पर पूरा ध्यान देने के चलते एसआईआर द्वारा वोटर लिस्ट में कटौती की आशंका बनी रहेगी।
चुनाव आयोग की प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद यह संदेह पुष्ट होता है कि आयोग का इरादा मतदाता सूची की सफाई का नहीं, बल्कि कुछ खास तरह के वोटरों का सफाया करने का है। यह मतदाता सूची को “शुद्ध” करने का तरीका नहीं है, बल्कि लोगों को चुन-चुनकर मनमाने ढंग से वोट के अधिकार से वंचित करने का जरिया है। यह काम किसी पारदर्शी मानक से नहीं, बल्कि अधिकारियों के विवेक, यानी सरकार की मनमर्जी पर निर्भर होगा। कह सकते हैं कि नागरिकता सत्यापन के नाम पर यह अघोषित “एनआरसी” का ही दूसरा रूप है।
खैर, चुनाव आयोग के मूल आदेश से बिहार में जो रायता फैला था, अब आयोग ने उसे कुछ हद तक समेटने की तैयारी की है। कहा जा सकता है कि इस बार कुछ सुधार और कुछ सहूलियतें जरूर दी गई हैं। जैसे; बिहार की तुलना में इस बार कम हड़बड़ी दिख रही है और आयोग ने अपेक्षाकृत बेहतर तैयारी की है। बीएलओ को पहले से प्रशिक्षण दिया गया है और 2002–04 की मतदाता सूची से नामों का मिलान पहले ही किया जा चुका है।
वहीं, इस बार दस्तावेजों का बोझ कुछ कम हुआ है। अब छूट केवल माता-पिता तक सीमित नहीं है, बल्कि 2002–04 की सूची में दर्ज किसी भी रिश्तेदार के आधार पर भी मिल सकती है। साथ ही, एन्यूमरेशन चरण में अब कोई दस्तावेज जमा नहीं करने होंगे- केवल नोटिस मिलने पर ही उन्हें प्रस्तुत करना होगा। रोचक बात यह है कि बिहार में एसआईआर के मूल आदेश में केवल माता-पिता के दस्तावेज मांगे गए थे, लेकिन जब आयोग को अंदेशा हुआ कि इससे लाखों लोग मतदाता सूची से बाहर हो सकते हैं, तब उसने प्रेस रिलीज जारी कर रिश्तेदारों (जैसे चाचा, मामा, नाना, ताऊ) के दस्तावेज भी स्वीकार करने की छूट दी। अब चुनाव आयोग ने इस अनौपचारिक छूट को औपचारिक बना दिया है।
चुनाव आयोग जिन लोगों के नाम मतदाता सूची से हटाएगा, उनकी सूचियां सार्वजनिक की जाएंगी। इस कदम का सकारात्मक पक्ष यह है कि इससे पारदर्शिता बढ़ेगी- प्रभावित व्यक्ति, पार्टी या जनसंगठन सूची देखकर विरोध दर्ज करा सकते हैं, पर यह तभी काम करेगा जब मतदाता सूची सुलभ, समय पर और स्पष्ट कारणों के साथ प्रकाशित और आम जनमानस तक उपलब्ध हो सके।
आयोग ने इस बार बीएलओ के अलावा राजनीतिक दलों के बीएलए को भी प्रतिदिन 50 एन्यूमरेशन फॉर्म जमा करने की अनुमति दी है। इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि आयोग की तरफ से दी गई सहूलियतें सुप्रीम कोर्ट के बार-बार दखल दिए जाने से संभव हो पाई हैं।
एसआईआर के राष्ट्रव्यापी संस्करण की घोषणा से एक बार फिर साबित हुआ कि चुनाव आयोग को वोटर लिस्ट के शुद्धीकरण में कोई दिलचस्पी नहीं है। बिहार में आयोग ने एसआईआर की पूरी कवायद के दौरान न तो डुप्लीकेट एंट्री हटाने के लिए अपने डि-डुप्लीकेशन सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल किया, न ही फर्जी या संदिग्ध डेटा की कोई स्वतंत्र जांच कराई और न ही अपने ही मैनुअल में निर्धारित भौतिक सत्यापन प्रक्रिया का पालन किया गया। हैरानी की बात यह कि अब भी चुनाव आयोग को वोटर लिस्ट की गड़बड़ियों को दूर करने वाली इन सामान्य प्रक्रियाओं में कोई दिलचस्पी नहीं है।
प्रवासी मजदूरों के वोट कटने पर भी चुनाव आयोग को कोई चिंता नहीं है। बस इतनी सहूलियत जरूर दी गई है कि अस्थायी रूप से अनुपस्थित किसी व्यक्ति की जगह परिवार का दूसरा व्यक्ति फॉर्म भरकर जमा कर सकेगा। इसी तरह, बिहार में महिलाओं के अनुपात में असामान्य रूप से अधिक नाम हटाए गए, लेकिन चुनाव आयोग ने अब भी इसका भी कोई संज्ञान नहीं लिया है।
एसआईआर का मूल स्वरूप अभी भी वोटबंदी है। मतदाता सूची में बने रहने की जिम्मेदारी अब भी मतदाता पर ही डाल दी गई है, यानी एन्यूमरेशन फॉर्म भरना अब भी अनिवार्य है। जो भी व्यक्ति तय समय-सीमा के भीतर फॉर्म जमा नहीं करेगा, उसका नाम बिना किसी नोटिस, सुनवाई या अपील के हटा दिया जाएगा। नागरिकता-सत्यापन के नाम पर यह प्रक्रिया अब उस दिशा में बढ़ रही है, जहां चुनिंदा तरीके से व्यक्तियों या समुदायों के वोट काटे जा सकेंगे।
2002-04 की मनमानी कटऑफ तिथि अब भी लागू है, जबकि पुराने आदेश से यह साफ हो चुका है कि उस समय नागरिकता की कोई जांच नहीं हुई थी। एसआईआर के लिए स्वीकार्य दस्तावेजों की सूची में कोई बदलाव नहीं किया गया- पैन कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस, राशन कार्ड, मनरेगा जॉब कार्ड अब भी मान्य नहीं हैं।
चुनाव आयोग अब भी आधार को 12वें दस्तावेज के रूप में स्वीकार करने पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश से बच रहा है। बहाना यह है कि आधार कार्ड नागरिकता का प्रमाण नहीं है। लेकिन यह नहीं पूछा जा रहा कि यही बात बाकी 11 दस्तावेजों पर लागू क्यों नहीं होती जिनमें से अधिकांश नागरिकता के प्रमाण नहीं हैं। चिंता की बात यह है कि दस्तावेजों के सत्यापन की प्रक्रिया अब भी मनमानी और अपारदर्शी है। इस मायने में एसआईआर का नया संस्करण पहले से भी ज्यादा खतरनाक है चूंकि मुख्यतः नागरिकता साबित करने का तरीका बना दिया गया है।
चिंता की बात यह भी है कि चुनाव आयोग ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस बुनियादी सवाल का जवाब भी नहीं दिया कि बिहार में चले विशेष गहन पुनरीक्षण के दौरान उसे आखिर कितने “अवैध विदेशी” मिले, जिस आधार पर इतनी बड़ी कवायद शुरू की गई थी। अब बिना इन सवालों के जवाब दिए, यही प्रक्रिया देश के बाकी राज्यों में भी बढ़ा दी जा रही है। यह न केवल गैर-जिम्मेदाराना है, बल्कि मनमानी भी है।
इसलिए यह बुनियादी सवाल खड़ा होता है कि जब 2003 के गहन पुनरीक्षण और 2016 के राष्ट्रीय मतदाता सूची शुद्धीकरण कार्यक्रम की तरह और भी पारदर्शी, न्यायसंगत और सरल विकल्प मौजूद थे, तो आखिर इतनी जटिल और जनविरोधी प्रक्रिया क्यों चुनी गई? हो या न हो, दाल में कुछ काला नजर आता है।
You may also like
 - Devuthani Ekadashi Vrat Katha : देवउठनी एकादशी व्रत कथा, इसके पाठ से भगवान विष्णु होंगे प्रसन्न, पूरी होंगी सारी इच्छा
 - देश की एकता और अखंडता के शिल्पकार थे लौह पुरुष : सुदेश
 - संस्कृत और तमिल भारत की आत्मा : योगी आदित्यनाथ
 - फिल्मीˈ दुनिया से गुम होकर सड़क पर आ गया स्टार, अब टैक्सी चलाकर काट रहा है जिंदगी﹒
 - मांˈ का मंगलसूत्र बेचकर पिता के ऑटो का चालान भरने आया बेटा फिर RTO ने जो किया बन गया मिसाल﹒




