हमारे घरों और अस्पतालों से ऐसा बहुत सा कचरा निकलता है, जिससे कुछ लोगों को ख़तरनाक बीमारी भी हो सकती है. मैं जिस कचरे की बात कर रही हूं, उसे बायो मेडिकल वेस्ट कहते हैं.
इसमें इस्तेमाल हो चुकी सिरिंज, ग्लव्स, मास्क और ख़ून की शीशी समेत बहुत कुछ शामिल होता है.
यानी किसी इंसान या पशु के इलाज में इस्तेमाल सामान से पैदा हुआ कचरा.
इसी की पड़ताल करने के लिए मैं सबसे पहले दिल्ली के कालिंदी कुंज पहुंची. यहां बायो मेडिकल वेस्ट खुले में पड़ा था.
यहां मैंने महिलाओं, बच्चों और एक पुरुष को कचरे के बीच काम करते देखा. ये इसी कचरे से प्लास्टिक इकट्ठा कर रहे थे.
कौन लोग इससे प्रभावित हो रहे हैं?
कालिंदी कुंज में मेरी सबसे पहले बातचीत कचरा इकट्ठा कर रही सलेहा ख़ातून से हुई. उन्होंने कहा, "ये कचरा अस्पताल और रेलवे से आता है. इनमें दवा की शीशी, सिरिंज होती हैं. हमें इन सामान को अलग करना होता है. ठेकेदार को मालूम है क्या-क्या बेचना है. मैं तो 300 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से लेबर का काम करती हूं."
सलेहा के साथ उनके तीन बच्चे भी थे. जिनमें से एक बच्चा महज़ 3 साल का है और इसी कचरे पर नंगे पांव दौड़ लगा रहा था.
यहां काम कर रहीं शुरा बताती हैं, "इस कचरे में कांच आता है, सुई आती है. उसमें ढक्कन नहीं लगा होता, जिससे वो हमें चुभ जाती है. लोग दवाएं खाकर कचरे में फेंक देते हैं, वो भी मिलती हैं. एडल्ट डायपर्स भी इसमें होते हैं. जो सबसे गंदा होता है."
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शुरा बताती हैं, "हमें हर तीन महीने में टेटनस का इंजेक्शन दिया जाता है ताकि कोई बीमारी ना हो. जब ज़्यादा गंदा कचरा आता है, तो मैं ग्लव्स पहन लेती हूं. कांच की टूटी बोतलें होती हैं, उनसे हाथों को भी बचाना होता है."
हालांकि वहां बहुत देर तक मैं शुरा को बिना ग्लव्स के ही काम करता देख रही थी.
इससे केवल यही लोग प्रभावित नहीं हो रहे बल्कि जो लोग इस कचरे में काम नहीं करते, ये उन्हें भी नुक़सान पहुंचा सकता है.
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विश्व स्वास्थ्य संगठन की 2024 में छपी रिपोर्ट के मुताबिक़ अस्पतालों से निकलने वाला क़रीब 85 फ़ीसदी कचरा सामान्य होता है. लेकिन 15 फ़ीसदी कचरा ख़तरनाक होता है. और अगर इस 15 फ़ीसदी का एक पर्सेंट भी 85 फ़ीसदी में मिल जाए, तो वो पूरा कचरा ही ख़तरनाक हो जाएगा.
इस रिपोर्ट में बीमारी के आंकडे़ भी बताए गए हैं. लेकिन हैरानी की बात ये है कि 2024 की रिपोर्ट में 2010 के आंकडे़ हैं, और इसके बाद के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं.
इस रिपोर्ट के मुताबिक़, हर साल दुनिया भर में क़रीब 16 करोड़ इंजेक्शन लगाए जाते हैं. इनमें से कई का सही ढंग से निपटारा नहीं होता. इसी वजह से 2010 में एचआईवी इन्फे़क्शन के 33 हज़ार 800, हेपेटाइटस बी के 17 लाख और हेपेटाइटस सी के 3 लाख 15 हज़ार मामले सामने आए थे.
भारत को लेकर क्या हैं आंकड़े?
केंद्रीय प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड यानी सीपीसीबी की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में रोज़ 743 टन बायो मेडिकल वेस्ट जनरेट होता है.
चिंता की बात ये है कि इसमें से हर रोज़ 694 टन बायो मेडिकल वेस्ट का ही निपटारा होता है.
तो फिर बचा हुआ 49 टन बायो मेडिकल वेस्ट कहां जाता है? ये सिर्फ़ एक दिन का नंबर है, एक महीने का नंबर 1470 टन है और एक साल का 17,885 टन है. अब सवाल ये उठता है कि जो कचरा ट्रीट नहीं होता, वो आख़िर जाता कहां है?
सीपीसीबी की ताज़ा रिपोर्ट में ये दावा किया गया है कि 2023 में दिल्ली में हर रोज़ 31,692 किलो बायो मेडिकल वेस्ट जनरेट हुआ और हर रोज़ 31,692 किलो बायो मेडिकल वेस्ट का निपटारा भी हुआ. अगर ऐसा ही है, तो फिर हमें आम जगहों पर जो बायो मेडिकल वेस्ट मिला, वो कहां से आया था? इस सवाल का जवाब हमने सीपीसीबी से जानना चाहा, लेकिन अब तक कोई जवाब नहीं मिल सका है.
रिपोर्ट के मुताबिक, कॉमन बायो-मेडिकल वेस्ट ट्रीटमेंट फैसिलिटीज़ (CBWTFs) और कैप्टिव ट्रीटमेंट फैसिलिटीज़ (CTFs) के ज़रिए भारत में बायो मेडिकल वेस्ट को ट्रीट या डिस्पोज़ किया जाता है. जबकि कुछ अस्पतालों की ख़ुद की कैप्टिव ट्रीटमेंट फैसिलिटी भी हैं.
दिल्ली की बात करें, तो यहां केवल 2 ही कॉमन बायो-मेडिकल वेस्ट ट्रीटमेंट फैसिलिटीज़ हैं और 1 कैप्टिव ट्रीटमेंट फैसिलिटी है.
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इंडिपेंडेंट रिसर्चर और एनालिस्ट प्रीति महेश बताती हैं, "एनवायरमेंट प्रोटेक्शन एक्ट 1986 कहता है कि नियमों का उल्लंघन करने पर जेल भी हो सकती है और जुर्माना भी लग सकता है. ये दोनों चीज़ें रेगुलेशन में हैं. दिल्ली में ये नियम है कि हर लेवल पर डिस्ट्रिक्ट लेवल मॉनिटरिंग कमेटी होनी चाहिए. जो विज़िट करके देखे कि ये निपटान सही तरीके़ से हो रहा है या नहीं. उसकी रिपोर्ट के आधार पर काफ़ी क्लीनिक्स पर जुर्माना लगाया गया है और आख़िर में अगर क्लीनिक्स इसमें सुधार नहीं करते तो उन्हें बंद भी किया जा सकता है."
इसके बाद मैंने रुख़ किया, दिल्ली के ग़ाज़ीपुर का. यहां का कचरे का पहाड़ दुनिया भर में सुर्ख़ियां बटोर चुका है.
ग़ाज़ीपुर में मैंने लोगों से बस एक सवाल पूछा कि क्या यहां सिर्फ़ घर का सामान्य कचरा ही आता है?
वो जो आज भी दर्द में हैंग़ाज़ीपुर में मेरी मुलाक़ात रेहाना से हुई. जो यहां क़रीब 15 साल से रह रही हैं. उनके परिवार में उनकी चार बेटियां और पति हैं.
कचरा इकट्ठे का काम करने वाली रेहाना बताती हैं कि उन्हें कुछ महीने पहले सुई चुभ गई थी, जिससे इन्फे़क्शन हो गया.
वो बताती हैं, "कचरे में सुई और ख़ून समेत सबकुछ आता है. सुई चुभने से मुझे इन्फे़क्शन हुआ, जिससे हाथ फूल गया था. डॉक्टर के पास गई तो उन्होंने बताया कि इन्फे़क्शन हो गया है. दवाई भी खाई. लेकिन अभी तक ठीक नहीं हुआ. मुझे दर्द होता है. उंगली पर ये काले रंग का निशान बन गया है. मुझे इसकी वजह से अभी भी चक्कर आते हैं."
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विशेषज्ञों से बातचीत करने पर पता चला कि अस्पताल का कचरा तो यहां आ ही रहा है. साथ ही वो कचरा भी आ रहा है, जो होम पेशंट्स का है.
आजकल लोग घरों पर अपना इलाज कराते हैं, इन्सुलिन और अन्य इंजेक्शन लेते हैं. वहीं कुछ लोग ऑनलाइन बुकिंग के बाद चेकअप भी घर बैठे ही कराते हैं. पालतू कुत्ते और बिल्लियों के इलाज के लिए भी डॉक्टर घरों में आते हैं.
इन सबसे पैदा हुआ कचरा अधिकतर लोग अपने घर के सामान्य कचरे में ही फेंक देते हैं.
प्रीति महेश बताती हैं कि 2016 के नियमों में घर से निकलने वाले मेडिकल वेस्ट के निपटारे को लेकर भी नियम हैं कि इसे आम कचरे में ना मिलाया जाए.
वो कहती हैं कि कुछ क्लीनिक ऐसे हैं, जो बायो मेडिकल वेस्ट फैसिलिटी से जुड़े नहीं हैं, वो भी सामान्य कचरे में ही बायो मेडिकल वेस्ट डाल देते हैं.

अब राज्यों के आंकड़े देख लेते हैं. सबसे ज़्यादा बायो मेडिकल वेस्ट महाराष्ट्र से निकलता है. यहां से हर दिन 77,862 किलो वेस्ट निकलता है और सबसे कम यानी हर दिन 81.37 किलो लद्दाख से निकलता है.
हालांकि छह राज्यों में कचरे के उत्पन्न होने और ट्रीट होने के बीच एक बड़ा अंतर दिखा. यहां जितनी मात्रा में कचरा उत्पन्न होता है, उसका बहुत कम हिस्सा ही ट्रीट होता है.
प्रीति महेश इस सवाल का जवाब देते हुए बताती हैं, "बायो मेडिकल वेस्ट बेच दिया जाता है या रास्ते में निकालकर फेंक दिया जाता है. क्योंकि कुछ क्लिनिक वेस्ट फैसिलिटी से जुड़े नहीं होते, इससे जुड़ने पर हर महीने फीस भी देनी होती है."
सबसे पहले यह जानना ज़रूरी है कि अस्पताल बायोमेडिकल वेस्ट को बाहर कैसे निकालते हैं. इसका जवाब छुपा है अलग-अलग रंगों के बड़े बिन्स में, जिनमें उन्हीं के रंग की पॉलिथीन भी होती है.
रेड बिन में जाते हैं ग्लव्स या ट्यूबिंग. ब्लैक बिन में डाला जाता है नॉन-इन्फेक्टेड जनरल वेस्ट. ब्लू बिन में रखे जाते हैं ग्लास आइटम्स और सबसे संक्रमित सामान येलो बिन में जाता है.
इसके निपटारे की जानकारी देते हुए एम्स के डॉक्टर अमित लठवाल बताते हैं, "पीले बैग वाला वेस्ट इनसिनरेशन के लिए जाता है. रेड बिन का वेस्ट ऑटो क्लेव में जाता है, फिर इसकी श्रेडिंग होती है. इसके बाद इसे डिसइन्फेक्ट करके रिसाइकल किया जा सकता है. शार्प्स पंक्चर-प्रूफ कंटेनर में रहते हैं, जिन्हें बायोमेडिकल वेस्ट हैंडलर्स अपने स्तर पर ट्रीट करते हैं. इन्हें रिसाइकल नहीं किया जा सकता, इन्हें ज़मीन के नीचे दफना दिया जाता है. इसके और भी मैकेनिज़म हैं. इन्हें कंक्रीट बॉक्स में भी डालते हैं, ताकि यह बाहर न निकल सके."
वो आगे बताते हैं, "एक कैटेगरी ब्लड बैग्स की भी होती है. ब्लड बैग प्लास्टिक है, लेकिन बहुत संक्रमित होता है. उसे भी हम येलो कैटेगरी में ट्रीट करके इनसिनिरेट करते हैं. इनसिनिरेशन का मतलब है, जिसे बहुत अधिक तापमान पर जलाया जाता है. जिसका एंड प्रोडक्ट राख होती है."
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