ईरान और इसराइल के बीच जारी संघर्ष न केवल मध्य पूर्व को, बल्कि पूरी दुनिया को प्रभावित कर रहा है. इस टकराव का असर वैश्विक ऊर्जा बाज़ारों, व्यापारिक मार्गों और अंतरराष्ट्रीय कूटनीति तक महसूस किया जा रहा है.
13 जून को इसराइल ने 'ऑपरेशन राइज़िंग लायन' के तहत ईरान के परमाणु और सैन्य ठिकानों पर हवाई हमले किए. इसराइल का दावा है कि यह कार्रवाई ईरान की परमाणु हथियार प्राप्त करने की महत्वाकांक्षा को रोकने के लिए ज़रूरी थी.
जवाबी कार्रवाई में ईरान ने तेल अवीव पर मिसाइल हमले किए. यह संघर्ष केवल दो देशों की आपसी रंजिश नहीं है. इसके रणनीतिक, राजनीतिक और आर्थिक परिणाम पूरी दुनिया पर पड़ रहे हैं.
भारत के लिए यह स्थिति और भी जटिल है. एक ओर वह इसराइल के साथ रक्षा साझेदारी को मज़बूती दे रहा है, वहीं दूसरी ओर ईरान के साथ उसके गहरे रणनीतिक और आर्थिक हित जुड़े हैं.
अमेरिका इस संघर्ष में स्पष्ट रूप से इसराइल का समर्थन कर रहा है, और अब उसने भी ईरान के तीन परमाणु केंद्रों पर हमले किए हैं.
इस बीच रूस और चीन भी क्षेत्र में सक्रिय भूमिका निभाने की कोशिश कर रहे हैं. वे मध्यस्थता की पेशकश तो कर रहे हैं, लेकिन वास्तव में उनका ध्यान इस क्षेत्र में अमेरिकी प्रभाव को चुनौती देने पर केंद्रित है.
इन परिस्थितियों में कई अहम सवाल उठते हैं, क्या इसराइल अपने सैन्य अभियानों के ज़रिए संघर्ष को और बढ़ा रहा है? भारत कैसे इसराइल और ईरान के साथ रिश्तों में संतुलन बनाने की कोशिश कर रहा है और आज के समय में इसके क्या असर हो सकते हैं?
अमेरिका ने खुलकर एक पक्ष का साथ देने का जो निर्णय किया है उसका दुनिया के अलग-अलग हिस्सों के लिए क्या मतलब होगा? संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब जैसे देश इस संघर्ष में क्या रुख़ रखेंगे और इस संघर्ष का आर्थिक असर क्या होगा?
बीबीसी हिन्दी के साप्ताहिक कार्यक्रम, 'द लेंस' में कलेक्टिव न्यूज़रूम के डायरेक्टर ऑफ़ जर्नलिज़्म मुकेश शर्मा ने इन्हीं सब मुद्दों पर चर्चा की.
इन तमाम सवालों पर चर्चा के लिए ग्रेटर वेस्ट एशिया फ़ोरम की चेयरपर्सन डॉक्टर मीना रॉय, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन में स्ट्रैटिजिक स्टडीज़ के डिप्टी डायरेक्टर कबीर तनेजा और यरूशलम से वरिष्ठ पत्रकार हरिंदर मिश्रा शामिल हुए.
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व्हाइट हाउस ने कहा था कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अगले दो हफ्ते में ये फ़ैसला करेंगे कि इसराइल-ईरान संघर्ष में अमेरिका सीधे तौर पर शामिल होगा या नहीं. हालांकि उन्होंने संघर्ष के दसवें दिन ही ईरान के तीन परमाणु केंद्रों पर हमला कर दिया.
ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन में स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ के डिप्टी डायरेक्टर कबीर तनेजा ने कहा कि अमेरिकी विदेश नीति का एक मुख्य उद्देश्य इसराइल की सुरक्षा है, इसलिए अमेरिका का मौजूदा रुख़ कोई नया नहीं है. उन्होंने कहा कि अमेरिका वही करेगा जो इसराइल के हित में हो.
उन्होंने बताया, "इसराइल चाहता है कि ईरान के न्यूक्लियर प्रोग्राम पर ऐसा हमला किया जाए जिससे वह अगले दस साल तक फिर से खड़ा न हो सके. लेकिन ऐसा हमला करने के लिए जिन विशेष बमों की ज़रूरत है, वो सिर्फ़ अमेरिका के पास हैं क्योंकि ईरान की न्यूक्लियर साइट्स ज़मीन के काफ़ी अंदर हैं."
कबीर तनेजा ने कहा कि ट्रंप का चुनाव अभियान इस बात पर आधारित था कि वह अमेरिका को दूसरी जंगों में नहीं झोंकेंगे, लेकिन अगर इस बार ट्रंप इसराइल के साथ मिलकर ईरान पर हमला करते हैं, तो अमेरिकी जनता कहेगी कि वो भी बाकी राष्ट्रपतियों जैसे ही निकले.
उन्होंने बताया कि ईरान का कहना है कि उसका न्यूक्लियर प्रोग्राम सिविलियन उपयोग के लिए है, जबकि इसराइल का दावा है कि ईरान के पास क़रीब 10 बम बनाने की क्षमता है.
उन्होंने कहा कि अमेरिका की डायरेक्टर ऑफ़ नेशनल इंटेलिजेंस तुलसी गबार्ड के कार्यालय ने भी कहा है कि अभी ऐसा कोई पुख्ता प्रमाण नहीं है कि ईरान तेज़ी से बम बनाने की ओर बढ़ रहा है. फिर भी, राष्ट्रपति ट्रंप का दावा है कि ईरान बम की दिशा में आगे बढ़ रहा है.
उन्होंने कहा कि अमेरिका के अंदर से भी आवाज़ें उठ रही हैं कि देश को ऐसे युद्ध में नहीं कूदना चाहिए जो इसराइल का युद्ध हो.
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ग़ज़ा को लेकर भले ही इसराइल में प्रदर्शन हुए हों, लेकिन बताया जा रहा है कि ईरान के मामले में इसराइल के लोगों का मत एक जैसा है.
जानकारों का कहना है कि इसराइल के लोग यह समझते हैं कि ईरान के साथ उनकी यह लड़ाई उनके अस्तित्व से जुड़ी है.
यरूशलम से वरिष्ठ पत्रकार हरिंदर मिश्रा ने बताया कि ग़ज़ा के मुद्दे पर इसराइल में हर रोज़ प्रदर्शन हो रहे थे. बंधकों की रिहाई को लेकर देश दो खेमों में बंट गया था और बड़ी आबादी को सरकार से नाराज़गी थी.
उन्होंने कहा, "शुरुआत में सिर्फ़ बंधकों की रिहाई की मांग हो रही थी, लेकिन धीरे-धीरे मांगें बढ़ती हुईं प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू के इस्तीफ़े और फिर नए चुनावों की मांग तक पहुंच गईं."
साथ ही उन्होंने बताया कि ईरान के मसले पर पूरे इसराइल में एक आम सहमति है— चाहे सत्ताधारी पार्टी हो या विपक्ष, सभी ईरान को लेकर एकजुट नज़र आते हैं.
हरिंदर मिश्रा ने कहा, "अधिकांश इसराइली मानते हैं कि ईरान को किसी भी सूरत में परमाणु शक्ति नहीं बनने देना चाहिए, क्योंकि वह इसराइल के लिए अस्तित्व का संकट होगा. उन्होंने कहा कि मिसाइल हमलों के बावजूद ज़्यादातर लोग मानते हैं कि इसराइल की यह जंग जायज़ है और ईरान को अपने मंसूबों में सफल नहीं होने देना चाहिए."
भारत के लिए क्यों चिंता की बात?जब पिछले हफ़्ते इसराइल ने ईरान पर हमला किया, तो एक ध्रुवीकृत वैश्विक माहौल में भारत के लिए किसी एक पक्ष का समर्थन करना आसान नहीं था.
हालांकि, क़रीब एक महीने पहले जब भारत ने पाकिस्तान के कुछ इलाक़ों में सैन्य कार्रवाई की थी, तब इसराइल ने भारत का खुलकर समर्थन किया था. यह इसराइल के लिए एक सहज निर्णय था, क्योंकि पाकिस्तान अब तक इसराइल को एक राष्ट्र के रूप में मान्यता नहीं देता है.
वहीं दूसरी ओर, भारत और ईरान के बीच लंबे समय से मज़बूत और सभ्यतागत स्तर के संबंध रहे हैं. दोनों देशों के बीच रणनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जुड़ाव गहरे हैं.
ऐसे में भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह बिना अपने दीर्घकालिक हितों को नुक़सान पहुंचाए इस संघर्ष में किसके साथ खुलकर खड़ा हो सकता है.
इस विषय पर ग्रेटर वेस्ट एशिया फ़ोरम की चेयरपर्सन डॉक्टर मीना रॉय ने कहा कि भारत के मध्य एशिया में कई अहम हित जुड़े हुए हैं.
उन्होंने बताया कि "हमारे लिए तेल का आयात, खाड़ी देशों के साथ व्यापारिक वॉल्यूम और सबसे बड़ी बात- वहाँ रह रहे नौ मिलियन से ज़्यादा भारतीय बहुत महत्वपूर्ण हैं. अगर युद्ध बढ़ता है, तो इस पूरे क्षेत्र को इससे अलग नहीं किया जा सकता."
उन्होंने चेतावनी दी कि ईरान की परमाणु साइट्स को जो निशाना बनाया जा रहा है, अगर कहीं ज़रा सी भी चूक हुई और रेडिएशन हवा में फैल गया, तो उसका असर बहुत भयावह हो सकता है.
डॉ. रॉय ने कहा, "भारत के लिए इसराइल और ईरान दोनों के साथ संबंध महत्वपूर्ण हैं, और भारत नहीं चाहेगा कि तनाव और बढ़े क्योंकि उसका असर सभी पर पड़ेगा."
उन्होंने कहा कि "इन तमाम पहलुओं को देखते हुए, हर देश—चाहे भारत हो या कोई और—सीज़फ़ायर को ही सबसे उचित विकल्प मानेगा, लेकिन फिलहाल इस निर्णय का दारोमदार अमेरिका पर है."
मीना रॉय ने कहा, "जब हम अंतरराष्ट्रीय संबंधों की बात करते हैं, तो यह देखना ज़रूरी होता है कि हमारी रणनीतिक साझेदारी किसके साथ कितनी गहरी है. भारत ने अभी तक अपने रिश्तों को संतुलन में रखा है, लेकिन अगर कभी ऐसी कोई परिस्थिति आ जाए कि आपको इस देश का साथ देना है या दूसरे देश का, तो जो हमारे देश के लिए फायदेमंद है उसे देखते हुए हम स्टेटमेंट देते हैं. और दोनों देशों में से हमें किसी एक को चुनना होगा तो उस समय हम देखेंगे कि कौन-से देश के साथ हमारा पलड़ा भारी है."
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साल 2023 में 7 अक्तूबर को जब हमास ने इसराइल पर हमला किया, तो इसके जवाब में इसराइल ने ग़ज़ा में सैन्य कार्रवाई शुरू की. लेकिन जैसे-जैसे ग़ज़ा में हमले तेज़ होते गए, दुनियाभर के कई नेताओं ने इसराइली सरकार, विशेषकर प्रधानमंत्री नेतन्याहू की नीतियों की आलोचना की.
इसराइल के कई शहरों समेत देश के विभिन्न हिस्सों में विरोध प्रदर्शन हुए. प्रदर्शनकारियों ने नेतन्याहू पर आरोप लगाया कि वे केवल अपनी राजनीतिक स्थिति बचाने के लिए युद्धविराम और बंधकों की रिहाई के लिए हो रही वार्ताओं को टाल रहे हैं.
हालांकि, अब माना जा रहा है कि ईरान पर हालिया हमलों के बाद नेतन्याहू की लोकप्रियता में एक बार फिर इज़ाफ़ा हुआ है.
इस पर यरूशलम से वरिष्ठ पत्रकार हरिंदर मिश्रा ने कहा कि ईरान के मुद्दे पर इसराइल में प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू की लोकप्रियता में इज़ाफ़ा देखा गया है.
उन्होंने बताया, "पिछले दो-तीन दिनों में कई सर्वे कराए गए हैं और उनमें यह सामने आया है कि जहां पहले नेतन्याहू की लोकप्रियता लगातार गिर रही थी, अब ईरान पर मिली कामयाबी को लोग बड़ी सफलता के तौर पर देख रहे हैं."
उन्होंने कहा कि "ऐसा लग रहा है कि अगर अभी चुनाव कराए जाएं तो इसराइल की सत्तारूढ़ लिकुड पार्टी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर सकती है, जबकि कुछ समय पहले तक उसकी लोकप्रियता काफ़ी गिरी हुई नज़र आ रही थी."
हरिंदर मिश्रा ने कहा, "एक तरह से नेतन्याहू का राजनीतिक करियर फिर से जीवित होता दिख रहा है. पहले ऐसा माना जा रहा था कि वे अपने राजनीतिक जीवन के अंतिम दौर में पहुँच चुके हैं."
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क़तर, सऊदी अरब और ओमान समेत मध्य-पूर्व के कई देशों ने इसराइल की ओर से ईरान पर किए गए हालिया हमलों की कड़ी निंदा की है.
क़तर ने चेतावनी दी कि इसराइल की यह कार्रवाई अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के लिए गंभीर ख़तरा है. वहीं, सऊदी अरब ने इन हमलों को अंतरराष्ट्रीय क़ानून का उल्लंघन क़रार दिया.
इन देशों का मानना है कि अगर इसराइल और ईरान के बीच संघर्ष और बढ़ा, तो इसका असर केवल क्षेत्रीय सीमाओं तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि यह पूरी दुनिया को प्रभावित करेगा.
हर किसी की नज़र इस बात पर टिकी है कि अमेरिका के ईरान पर हमलों के बाद इस्लामिक देशों का रुख़ क्या होगा.
इस पर डॉक्टर मीना रॉय ने कहा कि अरब देशों के हालिया बयानों से यह स्पष्ट है कि वे इसराइल और ईरान के बीच संघर्ष को बढ़ते नहीं देखना चाहते.
उन्होंने कहा, "वे नहीं चाहते कि इस लड़ाई में अमेरिका आए और यह लड़ाई हद तक बढ़ जाए."
उन्होंने समझाया कि जब हम क्षेत्रीय संदर्भ की बात करते हैं, तो तीन चीज़ें बेहद महत्वपूर्ण होती हैं.
- पहला- भूगोल (जियोग्राफी)
- दूसरा- नेतृत्व (लीडरशिप)
- तीसरा- ताक़त और उसका उपयोग कैसे किया जा रहा है.
डॉ. रॉय ने कहा, "जब पहले ईरान-इराक़ युद्ध हुआ था, तब कोई भी ईरान के साथ खड़ा नहीं था. आज भी वह अकेला ही लड़ रहा है, लेकिन इस बार अरब देशों, विशेषकर सऊदी अरब की ओर से सबसे पहले बयान सामने आया है, जो पहले नहीं देखा गया था. इससे यह साफ़ है कि स्थिति में काफ़ी बदलाव आया है."
उन्होंने कहा कि "मध्य एशिया के देशों में फ़िलहाल इतनी ताक़त नहीं है कि वे अमेरिका के ख़िलाफ़ खड़े हो सकें, लेकिन वे चाहते हैं कि यह मामला संतुलित तरीके़ से सुलझे. ईरान को परमाणु शक्ति बनने से रोका जाए, लेकिन लड़ाई जो चल रही है वो बढ़नी नहीं चाहिए."
रूस और चीन किसके साथ?जब इसराइल ने ईरान पर हवाई हमला किया, तो चीन की पहली प्रतिक्रिया तीव्र थी. चीन ने कहा कि इसराइल ने 'रेड लाइन पार कर ली है', जो यह संकेत देती है कि वह इसराइली कार्रवाई को गंभीरता से ले रहा है.
दूसरी ओर, रूस ने अब तक इसराइल-ईरान संघर्ष में अपेक्षाकृत संतुलित और सतर्क रुख़ अपनाया है.
रूस इसराइल के हमलों की आलोचना तो कर रहा है, लेकिन अब तक उसने ईरान को कोई प्रत्यक्ष सैन्य सहायता नहीं दी है और न ही इसराइल के ख़िलाफ़ कोई ठोस क़दम उठाया है.
ऐसे में यह सवाल उठता है कि अगर संघर्ष और गहराता है, तो क्या चीन और रूस ईरान को सैन्य सहायता देंगे?
इस पर कबीर तनेजा ने कहा कि रूस और चीन दोनों के ईरान में न सिर्फ़ आर्थिक बल्कि राजनीतिक निवेश भी हैं.
उन्होंने बताया, "रूस और चीन ईरान को राजनीतिक और कूटनीतिक समर्थन तो देते हैं, लेकिन वे सैन्य समर्थन नहीं देंगे. इसराइल के ख़िलाफ़ वे ईरान के लिए कोई लड़ाई नहीं लड़ने वाले."
कबीर तनेजा ने कहा, "अगर अमेरिका इस युद्ध में शामिल होता है, तो यह रूस और चीन के लिए रणनीतिक रूप से फायदेमंद हो सकता है, क्योंकि इससे अमेरिका की सैन्य क्षमता-जो अभी यूक्रेन और इंडो-पैसिफ़िक क्षेत्रों में लगी हुई है, कमज़ोर पड़ सकती है."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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