ब्राज़ील 6-7 से जुलाई को ब्रिक्स शिखर सम्मेलन की मेज़बानी कर रहा है. यह बैठक ऐसे समय हो रही है जब दो हफ़्ते पहले ही इसराइल और अमेरिका ने ब्रिक्स के नए सदस्य ईरान पर सीधे सैन्य हमले किए थे. कुछ जानकारों का कहना है कि इस घटना ने अमेरिका के असर के मुक़ाबले ब्रिक्स की सीमाएं भी दिखा दी हैं.
पुतिन और शी जिनपिंग की ग़ैर-मौजूदगी के साथ, ईरान के राष्ट्रपति भी इस बैठक में शामिल नहीं हो रहे हैं. कई और नेताओं के न आने के कारण ब्राज़ील और लातिन अमेरिकी मीडिया रिपोर्टों में रियो डी जेनेरियो में हो रही इस बैठक को 'कम भागीदारी वाली' और यहां तक कि 'खाली' बताया जा रहा है. ब्राज़ील की मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक़, ब्रिक्स के एक और अहम नए सदस्य मिस्र के राष्ट्रपति भी बैठक में मौजूद नहीं होंगे.
ब्रिक्स के मुख्य सदस्य देशों में से भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और दक्षिण अफ़्रीका के राष्ट्रपति सिरिल रामाफ़ोसा के साथ नए सदस्य इंडोनेशिया के राष्ट्रपति इस बैठक में व्यक्तिगत रूप से शामिल होने वाले हैं.
हालांकि, ब्राज़ील और अन्य क्षेत्रीय विश्लेषकों का मानना है कि इतने नेताओं के न आने से वामपंथी मेज़बान लूला डि सिल्वा की खुद को अंतरराष्ट्रीय नेता के तौर पर स्थापित करने की कोशिश प्रभावित हो सकती है.
ब्राज़ील के प्रमुख अख़बार 'ओ एस्टादो दी साओ पाउलो' ने 4 जुलाई को एक रिपोर्ट में लिखा, "ब्रिक्स में बड़े नेताओं की ग़ैर-मौजूदगी को ध्यान में रखते हुए लूला सरकार ने बैठक को संभालने की कोशिश की."
रिपोर्ट में कहा गया कि बड़ी हस्तियों की ग़ैर-मौजूदगी बैठक के राजनीतिक असर को कम कर सकती है और लूला सरकार की अंतरराष्ट्रीय छवि बनाने की रणनीति पर असर डाल सकती हैं.
अख़बार ने लिखा कि ब्राज़ील में हो रही ब्रिक्स की 17वीं बैठक 'पिछले कुछ सालों में सबसे कम भागीदारी वाली बैठकों में से एक' हो सकती है.
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ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ़्रीका जैसे इसके मुख्य सदस्य देशों और लातिन अमेरिका की वामपंथी राजनीति समेत इसके कई समर्थकों के बीच, 11 सदस्यीय ब्रिक्स को अब तक एक नई 'बहुध्रुवीय' वैश्विक व्यवस्था का प्रतीक माना जाता रहा है. इसे अमेरिका और पश्चिमी देशों के दशकों पुराने प्रभुत्व से दुनिया को अलग दिशा में ले जाने वाला मंच माना गया था.
लेकिन 21 जून को अमेरिका ने ईरान पर जो हवाई हमले किए और उससे पहले इसराइल के लगातार बमबारी अभियान ने यह बात साफ़ कर दी कि ब्रिक्स इस समय नेटो जैसे किसी मजबूत आपसी रक्षा समझौते वाला गठबंधन नहीं है, बल्कि एक ढीले-ढाले और अस्पष्ट भू-राजनीतिक समूह जैसा ही है.
इसका सबसे ताक़तवर सदस्य चीन ही ऐसा देश है जो इस मंच को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी आर्थिक और राजनीतिक ताक़त दिखाने के लिए सबसे ज़्यादा इस्तेमाल करना चाहता है.
28 जून को वेबसाइट ब्राज़ील247 में प्रकाशित एक लेख में ब्राज़ीली इतिहासकार और विश्लेषक फर्नांडो होर्ता ने लिखा, "अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जिस हालिया 12 दिनों की जंग की बात कर रहे हैं, वह दरअसल 'ब्रिक्स के लिए एक इम्तिहान' था. एक ऐसा इम्तिहान जिसमें मुझे डर है कि हम पहले ही असफल हो चुके हैं."
होर्ता ने कहा कि ट्रंप ने ब्रिक्स के सभी मुख्य सदस्य देशों के ख़िलाफ़ कभी सार्वजनिक आलोचना करके तो कभी आर्थिक प्रतिबंध लगाकर सीधे तौर पर अपनी नाराज़गी जताई है. उनका मानना है कि ट्रंप 'इस सोच पर दांव लगा रहे हैं कि ब्रिक्स असल में कोई ठोस गठबंधन नहीं है और इसमें न तो ताक़त है और न ही नई वैश्विक व्यवस्था का हिस्सा बनने की इच्छाशक्ति.'
होर्ता ने लिखा कि अमेरिका के राष्ट्रपति 'इस मंच की असली कमज़ोरी उजागर कर रहे हैं कि यह एकजुट होकर कार्रवाई करने में असमर्थ है.'
24 जून को ब्राज़ील के विदेश मंत्रालय ने पश्चिम एशिया के हालात पर ब्रिक्स की ओर से एक 'साझा बयान' जारी किया, जिसमें 13 जून 2025 से ईरान पर हो रहे सैन्य हमलों को लेकर 'गंभीर चिंता' जताई गई. इस बयान में इन हमलों को 'अंतरराष्ट्रीय क़ानून और संयुक्त राष्ट्र के चार्टर का उल्लंघन' बताया गया. लेकिन इस बयान में न तो इसराइल का नाम लिया गया, न ही अमेरिका की सीधे तौर पर निंदा की गई.
क्षेत्रीय और वैश्विक विश्लेषकों ने भी कहा है कि ईरान के रणनीतिक 'साथी' और ब्रिक्स के मुख्य स्तंभ चीन और रूस ने इन हमलों के बाद ईरान को कोई सैन्य समर्थन नहीं दिया.
लातिन अमेरिका के कई अख़बारों में छपे अपने लेख में अर्जेंटीना-अमेरिकी टिप्पणीकार आंद्रेस ओपेनहाइमर ने लिखा कि ईरान की 'जमीन पर करारी हार' ने उसके पश्चिमी हिस्से में मौजूद क़रीबी सहयोगियों वेनेज़ुएला, क्यूबा और निकारागुआ को झटका दिया है. इन देशों की वामपंथी सरकारें ईरान के साथ मिलकर अक्सर ब्रिक्स के नेतृत्व में 'नई वैश्विक व्यवस्था' की ज़ोरदार वकालत करती रही हैं.
ओपेनहाइमर ने ट्रंप प्रशासन के दौरान अमेरिका के ईरान और वेनेज़ुएला मामलों के विशेष प्रतिनिधि रहे इलियट अब्राहम्स के हवाले से लिखा, "कई सालों तक लोगों ने कहा कि ब्रिक्स ही अगली वैश्विक ताक़त है. लेकिन ईरान में जो कुछ अभी हुआ और नेटो में जो एकजुटता दिखी, उसने साफ़ कर दिया कि ब्रिक्स बस बातों के लिए है. असल में यह कुछ करता नहीं है."
मेक्सिको के प्रमुख अख़बार 'रेफोर्मा' और पेरू के 'एल कोमेर्सियो' में भी छपे अपने लेख में ओपेनहाइमर ने लिखा कि 'ज़्यादातर राजनयिक विश्लेषकों को संदेह है कि ब्रिक्स शिखर सम्मेलन ईरान को नैतिक समर्थन देने से ज़्यादा कुछ कर पाएगा.'
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ब्राज़ीली मीडिया रिपोर्टों ने ख़ासतौर पर चीन के शी जिनपिंग की गैरमौजूदगी को रेखांकित किया है, जो बताया जा रहा है कि ब्रिक्स नेताओं की सालाना शिखर बैठक में उनकी पहली अनुपस्थिति है.
लिबरल-कंज़र्वेटिव वेबसाइट रेविस्ता ओएस्टे ने 2 जुलाई की रिपोर्ट में लिखा कि चीनी नेता का नहीं आना "रियो में शिखर बैठक के ख़ालीपन के माहौल को और पुख़्ता करता है."
हालांकि वेबसाइट जर्नल जीजीएन ने कुछ विश्लेषकों के हवाले से शी की अनुपस्थिति को ज़्यादा अहमियत नहीं देने की बात कही, लेकिन वेबसाइट ने एक जुलाई के विश्लेषण में लिखा, 'ब्राज़ील के लिए शी का न आना एक राजनीतिक झटका है.'
जीजीएन ने कहा, "आख़िरकार, चीन ब्राज़ील का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है और ब्रिक्स देशों में बुनियादी ढांचे का अहम वित्तपोषक भी. इसके अलावा, चीन इस समूह के विस्तार का केंद्रीय किरदार भी रहा है. शी का न आना ऐसा है जैसे आप पार्टी रखें और मुख्य अतिथि आख़िरी वक़्त पर आने से इनकार कर दे."
न्यूज़ वेबसाइट मेट्रोपोल्स ने 30 जून को रिपोर्ट किया था कि रियो में ब्रिक्स समूह 'कम भागीदारी वाली बैठक में सहमति बनाने की कोशिश करेगा.'
रिपोर्ट में आगे कहा गया, 'इस बैठक के सामने वैश्विक संस्थाओं में सुधार और पश्चिम एशिया व यूक्रेन के संघर्ष जैसे मुद्दों पर सहमति बनाने की चुनौती है.'
हालांकि, ब्राज़ीली विश्लेषक पहले से ही अपेक्षाएं कम रखने के पक्ष में नज़र आ रहे हैं.
ब्राज़ील के दैनिक अख़बार ओ ग्लोबो में बीजिंग से लिखे एक जुलाई के लेख में विश्लेषक मार्सेलो नीनियो ने लिखा, "रियो बैठक में किसी अहम घोषणा की संभावना बेहद कम है-यह बात खुद इसमें शामिल लोगों ने बताई है, जो इस शिखर सम्मेलन में बड़े नेताओं की ग़ैर-मौजूदगी का कारण भी है.'
भू-राजनीति से इतर दूसरे मुद्दों पर ज़्यादा फ़ोकस2 जुलाई को ग्लोबो ग्रुप के 'बोम ज़िआ ब्राज़ील' कार्यक्रम में शामिल होते हुए टिप्पणीकार मीरियम लेइतो ने कहा कि ब्राज़ील की अध्यक्षता में ब्रिक्स चाहता है कि यह बैठक 'भू-राजनीति पर कम' और 'आर्थिक चर्चाओं, विकास एजेंडा' पर ज़्यादा केंद्रित हो.
लेइतो के अनुसार, ब्राज़ील के मेज़बान चाहते हैं कि बैठक में ब्रिक्स समूह के ज़रिए मलेरिया और तपेदिक जैसी वैश्विक बीमारियों से निपटने में सहयोग, 'क्लाइमेट पैकेज' तैयार करने और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के प्रभावों पर चर्चा जैसे मुद्दों पर बात हो.
कई रिपोर्टों में ब्रिक्स की इस बैठक को 2025 में ब्राज़ील में होने वाले एक और बड़े अंतरराष्ट्रीय आयोजन- संयुक्त राष्ट्र की जलवायु परिवर्तन पर कॉन्फ्रेंस 'कॉप 30' के लिए भूमिका की तरह पेश किया गया है, जो 10 से 21 नवंबर के बीच बेलेम शहर में होगी.
ब्राज़ीली न्यूज़ वेबसाइट एग्ज़ामे ने चार जुलाई को रिपोर्ट किया कि रियो में ब्रिक्स शिखर बैठक में इस बात की समीक्षा की जाएगी कि जलवायु परिवर्तन के अंतरराष्ट्रीय प्रभावों से निपटने के लिए वित्तीय सहयोग में ब्रिक्स समूह और बड़ी भूमिका कैसे निभा सकता है.
चीन और रूस के नेताओं की मौजूदगी न होने के बावजूद विश्लेषकों ने कहा है कि रियो सम्मेलन फिर भी 'ऐतिहासिक' रहेगा क्योंकि यह पहली बार होगा जब विस्तार के बाद बने 11 सदस्य देशों- पांच मूल सदस्य और छह नए देश: मिस्र, इथियोपिया, ईरान, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और इंडोनेशिया को एक साथ लाया जाएगा.
लातिन अमेरिका से भी चार राष्ट्रपतियों के रियो बैठक में शामिल होने की उम्मीद जताई गई है. इसमें बोलीविया,क्यूबा (जो ब्रिक्स के 'साझेदार देश' माने जाते हैं) और साथ ही चिली और उरुग्वे के नेता शामिल हैं.
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