सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को बिहार में चल रही वोटर लिस्ट की स्पेशल इंटेंसिव रिवीज़न प्रक्रिया को रोकने से फ़िलहाल इनकार कर दिया है. बिहार में अगले कुछ महीनों में विधानसभा चुनाव होने हैं.
जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस जॉयमाल्या बागची इस स्पेशल रिवीज़न को चुनौती देने वाली कई याचिकाओं पर सुनवाई कर रहे हैं.
कोर्ट ने इस स्तर पर कोई अंतरिम आदेश जारी नहीं किया. जस्टिस सुधांशु धूलिया ने कहा, "हम भी मानते हैं कि इस मामले में पूरी सुनवाई की ज़रूरत है, इसलिए इसे 28 जुलाई 2025 को सुना जाएगा."
हालांकि उन 11 दस्तावेज़ों के मुद्दे पर, जिनका ज़िक्र चुनाव आयोग ने इस प्रक्रिया में किया था, कोर्ट ने कहा, "चुनाव आयोग के वकील राकेश द्विवेदी ने ख़ुद बताया कि जिन दस्तावेज़ों को मानने की बात की गई है, उनकी लिस्ट में 11 दस्तावेज़ शामिल हैं. लेकिन आदेश से साफ़ है कि यह सूची अंतिम नहीं है. इसलिए हमारी पहली नज़र में राय है कि न्यायहित में यह उचित होगा कि चुनाव आयोग इन दस्तावेज़ों को भी माने, आधार कार्ड, ख़ुद आयोग की तरफ़ से जारी ईपीआईसी कार्ड (वोटर आईडी) और राशन कार्ड. इससे याचिकाओं में उठे ज़्यादातर मुद्दे अपने आप सुलझ जाएंगे."
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कोर्ट ने यह टिप्पणी इसलिए की क्योंकि याचिकाकर्ताओं ने बताया था कि चुनाव आयोग के नोटिफ़िकेशन में कुछ अहम दस्तावेज़, जैसे आधार कार्ड को शामिल ही नहीं किया गया है. फिलहाल चुनाव आयोग ने इस स्पेशल रिवीज़न के लिए 11 दस्तावेज़ों की सूची जारी की है, जिनमें पासपोर्ट और जाति प्रमाण पत्र जैसे दस्तावेज़ शामिल हैं.
कोर्ट ने यह तय करने का अधिकार चुनाव आयोग को ही दिया कि वह इन दस्तावेज़ों को माने या न माने. लेकिन अगर चुनाव आयोग इन दस्तावेज़ों को नहीं मानता है तो इसके लिए उन्हें वजह भी बतानी होगी.
कोर्ट ने इस मामले में तीन प्रमुख मुद्दे तय किए हैं:
- क्या चुनाव आयोग के पास स्पेशल इंटेंसिव रिवीज़न जैसी प्रक्रिया चलाने का अधिकार है?
- इस प्रक्रिया को जिस तरीके और ढंग से चलाया जा रहा है, क्या वह सही है?
- इसकी टाइमिंग, क्योंकि ड्राफ्ट वोटर लिस्ट जैसी सूची तैयार करने के लिए बहुत कम वक्त दिया गया है, जबकि बिहार में नवंबर में ही चुनाव होने हैं.
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याचिकाकर्ताओं ने स्पेशल इंटेंसिव रिवीज़न की क़ानूनी वैधता और इसकी व्यावहारिकता दोनों पर सवाल उठाए.
वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने कहा कि इस कदम से "बहुत बड़ी संख्या में मतदाताओं का नाम वोटर लिस्ट से हट सकता है", यानी कई लोग अपने मताधिकार से वंचित हो जाएंगे.
अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि यह फ़ैसला चुनावों में सभी को बराबरी का मौका देने के सिद्धांत को भी प्रभावित करता है.
वरिष्ठ वकील गोपाल शंकरनारायणन ने कहा कि यह कदम भेदभावपूर्ण है क्योंकि इसमें कला, न्यायपालिका जैसे क्षेत्रों के विशिष्ट लोगों को ख़ास छूट दी गई है.
वकील वृंदा ग्रोवर ने कहा कि इसका सबसे ज़्यादा असर हाशिए पर जीने वाले लोगों पर पड़ेगा, जैसे प्रवासी मज़दूर, ट्रांसजेंडर और अनाथ.
इसके अलावा वकीलों ने कहा कि इस कदम से यह बोझ वोटरों पर डाल दिया गया है कि वे ख़ुद साबित करें कि वे भारतीय नागरिक हैं.
कपिल सिब्बल ने कहा, "वो कह रहे हैं कि अगर आप फ़ॉर्म नहीं भरेंगे तो आपको वोट डालने की अनुमति नहीं दी जाएगी. यह चुनाव आयोग के अधिकार क्षेत्र से बाहर का काम है."
उन्होंने कहा कि चुनाव आयोग नागरिकता साबित करने की प्रक्रिया चला रहा है, जबकि यह उसके अधिकारों में आता ही नहीं. उन्होंने संविधान की धाराएं पढ़कर सुनाईं और कहा कि वोटर बनने के लिए सिर्फ़ इतना चाहिए कि आप भारतीय नागरिक हों, मानसिक रूप से अस्वस्थ न हों या किसी क़ानून के तहत वोट डालने से रोके न गए हों.
सिंघवी ने कहा कि जब एक बार किसी का नाम वोटर लिस्ट में आ जाता है तो उसे हटाने के लिए बाकायदा एक तय प्रक्रिया अपनानी चाहिए. उन्होंने कहा, "क़ानून में यह धारणा आपके पक्ष में होती है कि अगर आपके पास वोटर आईडी है, तो आपने ज़रूरी दस्तावेज़ पहले ही दिए होंगे."
इसके जवाब में चुनाव आयोग की तरफ़ से पेश हुए वरिष्ठ वकील राकेश द्विवेदी ने कहा कि चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है जिसे वोटर लिस्ट तैयार करने और उसे दुरुस्त करने की ज़िम्मेदारी दी गई है. उन्होंने कहा, "अगर चुनाव आयोग के पास वोटर लिस्ट बनाने या उसमें सुधार करने का अधिकार नहीं होगा, तो हमें कोई दूसरा रास्ता ढूंढ़ना पड़ेगा."
इस कदम की व्यावहारिकता
दो जजों की बेंच ने चुनाव आयोग से ख़ास तौर पर सवाल किया कि चुनाव से कुछ ही महीने पहले इतने बड़े पैमाने पर प्रक्रिया चलाना कितना व्यावहारिक है.
जस्टिस धूलिया ने कहा, "एक ऐसे देश में जहां दस्तावेज़ों की कमी है, वहां दस्तावेज़ कहां से लाएंगे. अगर आप मुझसे दस्तावेज़ मांगेंगे तो मैं भी नहीं दे पाऊंगा. हम आपसे इसकी व्यावहारिकता पूछ रहे हैं. ख़ासकर उस टाइमलाइन के बारे में जो आपने तय की है."
हालांकि, इस पर चुनाव आयोग की ओर से पेश हुए वरिष्ठ वकील राकेश द्विवेदी ने कहा कि कोर्ट को इस मामले को खुला रखना चाहिए. उन्होंने कहा, "चुनाव आयोग की ओर से पल-पल की निगरानी की जा रही है."
उन्होंने आगे कहा कि चुनाव आयोग यह सुनिश्चित करेगा कि पूरी प्रक्रिया सही तरीके से हो और जिन लोगों का नाम लिस्ट से बाहर हुआ है, उन्हें अपनी बात रखने का पूरा मौका दिया जाएगा. उन्होंने यह भी कहा कि करीब तीन लाख लोग फॉर्म बांटने का काम कर रहे हैं और उन्होंने काफी हद तक काम पूरा कर लिया है. साथ ही उन्होंने बताया कि आयोग 2003 की लिस्ट को आधार मानकर चल रहा है, इसलिए ज़्यादातर लोगों को कोई दस्तावेज़ देने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी.
द्विवेदी ने कहा कि जब इस महीने ड्राफ़्ट लिस्ट तैयार हो जाएगी, तभी सुप्रीम कोर्ट देख पाएगा कि क्या बड़ी संख्या में लोग इससे बाहर हो रहे हैं.
लेकिन कोर्ट ने इस पर चिंता जताई. जस्टिस धूलिया ने कहा, "एक बार वोटर लिस्ट फ़ाइनल हो गई और चुनाव का नोटिफ़िकेशन जारी हो गया तो कोई कोर्ट इसमें हाथ नहीं लगाएगा."
जस्टिस बागची ने चुनाव आयोग से पूछा, "आप इस प्रक्रिया को चुनाव की तारीख से अलग भी कर सकते हैं. आप तय करें कि प्रस्तावित चुनाव से छह महीने पहले यह कर लें."
अभिषेक मनु सिंघवी ने इस पर ध्यान दिलाया कि "2003 में यह रिवीज़न विधानसभा चुनाव से दो साल पहले किया गया था. लोकसभा चुनाव से भी एक साल पहले."
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आज की सुनवाई में एक बड़ा मुद्दा यह भी था कि स्पेशल इंटेंसिव रिवीज़न के दौरान मतदाता जो दस्तावेज़ जमा कर सकते हैं, उसमें आधार को शामिल क्यों नहीं किया गया. याचिकाकर्ताओं ने कहा कि जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 के तहत आधार को पहचान साबित करने वाले दस्तावेज़ों में गिना गया है.
लेकिन चुनाव आयोग की दी गई सूची में आधार शामिल नहीं था. कई मीडिया रिपोर्टों में यह भी सामने आया कि बिहार के कुछ इलाकों में अधिकारी आधार को मान ही नहीं रहे थे.
इस पर चुनाव आयोग की ओर से पेश वरिष्ठ वकील राकेश द्विवेदी ने कहा, "आधार नागरिकता का प्रमाण नहीं है. हम यहां नागरिकता, पहचान, उम्र देख रहे हैं."
हालांकि बेंच ने कहा कि आधार उन दस्तावेज़ों का भी आधार है जिन्हें चुनाव आयोग जमा कराने की अनुमति दे रहा है.
जस्टिस धूलिया ने पूछा, "अगर मुझे जाति प्रमाण पत्र चाहिए तो मैं आधार दिखाता हूं. लेकिन जाति प्रमाण पत्र तो उन 11 दस्तावेज़ों में शामिल है."
इसके साथ ही जस्टिस धूलिया ने कहा, "नागरिकता तय करना चुनाव आयोग का काम नहीं, यह गृह मंत्रालय का काम है."
इस पर द्विवेदी ने जवाब दिया, "2003 में तो केवल तीन दस्तावेज़ ही मान्य थे पासपोर्ट, जन्म रजिस्टर और जाति प्रमाण पत्र. इस बार चुनाव आयोग ने दस्तावेज़ों की सूची को बढ़ाया है."
आख़िर में बेंच ने चुनाव आयोग से कहा कि वह स्पेशल इंटेंसिव रिवीज़न के लिए तीन और दस्तावेज़ों पर विचार करे.
क्या है स्पेशल इंटेंसिव रिवीज़न?24 जून 2025 को चुनाव आयोग ने अपने एक प्रेस नोट में कहा कि बिहार में मतदाताओं की सूची का आख़िरी बार 'इंटेंसिव रिवीज़न' 2003 में किया गया था. उसके बाद कई लोगों की मृत्यु, प्रवास और अवैध आप्रवास की वजह से फिर से एक स्पेशल इंटेंसिव रिवीज़न की ज़रूरत है. उन्होंने कहा कि जिन लोगों का नाम 2003 की सूची में आता है, उन्हें बस निर्वाचन आयोग की तरफ़ से जारी एक फ़ॉर्म भरना होगा.
जिनका नाम नहीं आता, उन्हें जन्म के साल के मुताबिक़ दस्तावेज़ देने होंगे. जिनका जन्म 1 जुलाई, 1987 के पहले हुआ है, उन्हें अपने जन्म स्थल या जन्म तिथि के लिए दस्तावेज़ देने होंगे. जिनका जन्म 1 जुलाई, 1987 से 2 दिसंबर, 2004 के बीच हुआ है, उन्हें अपने साथ अपने माता-पिता में से किसी एक के दस्तावेज़ देने होंगे. जिनका जन्म 2 दिसंबर, 2004 के बाद हुआ है, उन्हें अपने दस्तावेज़ के साथ अपने माता-पिता के भी दस्तावेज़ देने होंगे.
जिनके माता-पिता का नाम 2003 की मतदाताओं की सूची में शामिल है, उन्हें अपने माता-पिता के दस्तावेज़ जमा करने की ज़रूरत नहीं होगी. हालाँकि, सभी मतदाताओं को निर्वाचन आयोग की तरफ़ से जारी किया गया फ़ॉर्म भरना होगा.
इस पूरी प्रक्रिया के लिए एक महीने का वक्त दिया गया है. 26 जुलाई तक सभी मतदाताओं को फ़ॉर्म भरना होगा. फिर, 1 अगस्त को निर्वाचन आयोग एक ड्राफ्ट लिस्ट जारी करेगा. उसके बाद शिकायत दर्ज कराने के लिए लोगों के पास एक महीने का वक्त होगा. 30 सितंबर को वोटरों की फ़ाइनल लिस्ट जारी होगी.
चुनाव आयोग के मुताबिक़, बिहार में क़रीब 8 करोड़ वोटर हैं. इसलिए, लोगों ने आपत्ति जताई है कि इस प्रक्रिया को पूरा करने के लिए बहुत कम वक्त दिया गया है.
विपक्षी दलों और सिविल सोसाइटी ने इसका विरोध किया है. उनका कहना है कि इससे कई लोग मतदाताओं की सूची से बाहर हो जाएंगे. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने आरोप लगाया कि इस रिवीज़न से चुनाव आयोग "बैकडोर से एनआरसी लागू करने की कोशिश कर रहा है."
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