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किसी के चेहरे की कॉपी करके आपत्तिजनक वीडियो बनाने का चलन, क्या इस क़ानून के ज़रिए किया जा सकता है बचाव

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Getty Images डीपफ़ेक पर नकेल कसने के लिए डेनमार्क सरकार अपने कॉपीराइट कानून में सुधार कर रही है (प्रतीकात्मक तस्वीर)

कल्पना कीजिए, आपके चेहरे और आवाज़ की नकल करके एक वीडियो इंटरनेट पर चल रहा है, जबकि आपने वह वीडियो कभी रिकॉर्ड ही नहीं किया.

अब वह वीडियो आपके परिजनों और सहकर्मियों तक पहुंच चुका है. ऐसे फ़र्ज़ी वीडियो, ऑडियो क्लिप या फ़ोटो को डीपफ़ेक कहा जाता है.

इन्हें आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस की मदद से तैयार किया जाता है. ये इतने असली लगते हैं कि अक़्सर असली और नकली में फ़र्क़ करना मुश्किल हो जाता है.

यह तकनीक अब आसानी से उपलब्ध हो रही है. कई अभिनेता, राजनेता और दूसरे जाने-माने लोग इसके शिकार हो चुके हैं.

डीपफ़ेक का इस्तेमाल अब लोगों को बदनाम करने और उनकी प्रतिष्ठा को नुक़सान पहुंचाने के लिए होने लगा है.

इसमें किसी व्यक्ति को अश्लील वीडियो या शर्मनाक हालात में दिखाया जा सकता है. तो सवाल यह है कि हम अपनी पहचान या चेहरे की डिजिटल नकल बनने से कैसे बच सकते हैं?

इस समस्या से निपटने के लिए एक देश ने अपने क़ानून में बदलाव कर अहम क़दम उठाया है.

इसी कड़ी में इस सप्ताह दुनिया जहान में हम जानने की कोशिश करेंगे, क्या अब अपने चेहरे का कॉपीराइट करने का समय आ गया है?

डीपफ़ेक क्या है?

डीपफ़ेक पर नकेल कसने के लिए डेनमार्क सरकार अपने कॉपीराइट क़ानून में सुधार कर रही है.

कॉपीराइट क़ानून के तहत किसी भी मूल कृति पर उसके रचनाकार का अधिकार होता है. किसी व्यक्ति या कंपनी की नकल बनाकर उसे वितरित करना ग़ैरक़ानूनी है.

डेनमार्क सरकार अब कानून में संशोधन कर लोगों के चेहरे, आवाज़ और हावभाव को भी कॉपीराइट के दायरे में शामिल करने जा रही है.

डिजिटल कॉपीराइट मामलों की विशेषज्ञ और डेनमार्क की एक लॉ फ़र्म की वकील गिटे लोवग्रेन लार्सन का कहना है कि अब आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस आम लोगों के फ़ोन और कंप्यूटर तक पहुंच चुका है. इसके ज़रिए डीपफ़ेक कंटेंट बनाया जा रहा है, जो चिंता का विषय है.

लार्सन के अनुसार, "किसी की इजाज़त के बिना अगर एआई से उसके चेहरे या आवाज़ की हूबहू नकल करके कोई वीडियो या ऑडियो बनाकर शेयर करता है, तो वह व्यक्ति उसे हटाने की मांग कर सकता है और मुआवज़ा भी मांग सकता है. यह प्रस्तावित कानून अभी संसद में पास नहीं हुआ है, लेकिन इसके तहत ऐसे वीडियो ग़ैरक़ानूनी करार दिए गए हैं. डेनमार्क की अदालतें तय करेंगी कि इस क़ानून का उल्लंघन करने वालों को क्या सज़ा दी जाए."

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क्या इस कानून के तहत व्यंग्य या हास्य के लिए बनाए गए वीडियो भी ग़ैरक़ानूनी माने जाएंगे?

लार्सन कहती हैं कि 'ऐसा नहीं होगा. व्यंग्य और पैरोडी के उद्देश्य से बनाए गए वीडियो पर यह क़ानून लागू नहीं होगा, बशर्ते कि उनमें ग़लत जानकारी फैलाकर किसी के अधिकारों का उल्लंघन न किया गया हो.'

यह क़ानून सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म और टेक कंपनियों पर भी लागू होगा.

लार्सन के मुताबिक़, "अगर यह क़ानून संसद में पारित हो जाता है, तो प्लेटफ़ॉर्म को ऐसे कंटेंट हटाने होंगे. अगर वे ऐसा नहीं करते, तो उनके ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई हो सकती है. इस क़ानून के ज़रिए कंपनियों और एआई टूल का इस्तेमाल करने वालों दोनों को क़ानूनी दायरे में लाया जाएगा.

मगर क्या यह समस्या से निपटने का अच्छा तरीका होगा?

गिटे लोवग्रेन लार्सन ने कहा, "मुझे लगता है कि यह अच्छी पहल होगी. हमें पता होना चाहिए कि क्या फ़ेक है और क्या रियल है, क्योंकि कोई भी आसानी से इन वीडियो में किसी राजनेता को कुछ ऐसा कहते हुए दिखा सकता है, जो उन्होंने असल में नहीं कहा. इसकी सच्चाई का पता लगाना मुश्किल होता है. लोकतंत्र और समाज दोनों के लिए ऐसा क़ानून ज़रूरी है."

हालांकि, कई आलोचकों का मानना है कि हानिकारक डीपफ़ेक से निपटने के लिए कॉपीराइट क़ानून का इस्तेमाल सबसे उपयुक्त तरीका नहीं है. लेकिन इसे समझने के लिए पहले यह जानना ज़रूरी है कि दरअसल कॉपीराइट क़ानून क्या है?

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कॉपीराइट क्या है?

इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी के तीन प्रमुख पहलू हैं. एक है ट्रेडमार्क जो किसी ब्रांड की पहचान होता है, दूसरा है आविष्कारों से जुड़े पेटेंट और तीसरा है कला, साहित्य या संगीत जैसी रचनात्मक चीज़ों का कॉपीराइट.

यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन में इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी लॉ की लेक्चरर डॉक्टर एलिना ट्रापोवा कहती हैं कि आसान शब्दों में यह इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी है जो इंसानों की कृतियों को दिया जाता है.

उन्होंने कहा कि यह क़ानून हमारी रचनात्मक अभिव्यक्ति की रक्षा करता है. रचनात्मक अभिव्यक्ति व्यक्ति की अत्यंत निजी बात है जो उसकी पहचान से जुड़ी हुई है. एक तरह से यह हमारी पहचान की रक्षा करता है.

पहले कॉपीराइट संबंधी कानून में कोई ख़ास पेचीदगी नहीं थी. यानी पहले यह पेंटिंग जैसी भौतिक चीज़ों की नकल से रक्षा के लिए बना था.

मगर बीतते वक़्त और टेक्नोलॉजी में हो रहे विकास के साथ कंप्यूटर की मदद से डिजिटल नकल तैयार की जा सकती है. इसे ध्यान में रखकर कानून में संशोधन हुए हैं.

डॉक्टर एलिना ट्रापोवा ने बताया, "साहित्य और लेखों की रक्षा के लिए यह क़ानून लागू होता था. बाद में संगीत और फ़िल्मों की नकल के मामले तेज़ी से बढ़ने लगे. तब लोगों को पता चला कि कॉपीराइट दरअसल टेक्नोलॉजी से जुड़ा मुद्दा भी है."

"डिजिटल टेक्नोलॉजी के विकास के साथ हमें कॉपीराइट क़ानून में संशोधन करना चाहिए."

"एआई से बनी सामग्री इसके दायरे में आती है. लेकिन अब सवाल उठ रहे हैं कि क्या हमें गंध और स्वाद को भी कॉपीराइट के दायरे में लाना चाहिए? यानी क्या परफ़्यूम और खाने-पीने की चीज़ों को भी कॉपीराइट के दायरे में लाना चाहिए? दरअसल कॉपीराइट की कहानी बेहद लंबी है और तेज़ी से आगे बढ़ रही है."

इंसान की तरफ़ से बनाई कला, संगीत, साहित्य के कॉपीराइट की बात तो समझ में आती है लेकिन इसे चेहरे पर लागू करना आसानी से समझ में नहीं आता.

डॉक्टर एलिना ट्रापोवा भी कहती हैं कि इसे मनुष्य के चेहरे पर लागू करना कुछ अजीब है क्योंकि हम अपने चेहरे की रचना नहीं करते बल्कि उसके साथ पैदा होते हैं.

वो कहती हैं क़ानूनी दृष्टि से भी उन्हें यह विचार अटपटा लगता है.

अगर इसका उद्देश्य सोशल मीडिया वेबसाइटों पर डीपफ़ेक कंटेंट पर अंकुश लगाना है, तो इस रास्ते में एक और बाधा है.

वो यह कि ज्यादातर सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म अंतरराष्ट्रीय हैं यानी उन्हें इस क़ानून के भीतर रह कर काम करने के लिए बाध्य करने के लिए कई देशों को यह क़ानून लागू करना पड़ेगा.

डॉक्टर एलिना ट्रापोवा कहती हैं कि आमतौर पर सभी देशों के अपने कॉपीराइट क़ानून रहे हैं और वो उसी को लागू करते रहे हैं.

लेकिन टेक्नोलॉजी के विकास के साथ कई देशों में कुछ कॉपीराइट क़ानूनों को साथ मिलकर लागू करने पर सहमति भी हुई है.

मगर अभी भी कई देश अपने बनाए हुए कॉपीराइट क़ानूनों को ही लागू करते हैं. यह एक बड़ी चुनौती है.

ऐसे में हमारे पास क्या क़ानूनी विकल्प हैं?

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मौजूदा क़ानून

ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में क़ानून और एआई के नियंत्रण संबंधी विषय के प्रोफ़ेसर इग्नासियो कोफ़ोन कहते हैं कि एआई या आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस को नियंत्रित करने के लिए आमतौर पर कई तरह के क़ानून होते हैं लेकिन वो ख़ासतौर पर एआई को ध्यान में रख कर नहीं बनाए गए हैं इसलिए कई हानिकारक बातें उनकी पकड़ से छूट जाती हैं.

इग्नासियो कोफ़ोन आगे कहते हैं कि अलग-अलग तरह की टेक्नोलॉजी से क्या नुक़सान हो सकता है इसका अनुमान लगाना मुश्किल होता है. एआई भी ऐसी ही टेक्नोलॉजी है.

"ऐसे में हमें यह सोच कर कानून बनाने चाहिए कि किस प्रकार की गंभीर हानियों से बचना हमारे लिए सबसे अधिक आवश्यक है. टेक्नोलॉजी के संबंध में इसका मतलब है कि हमें केवल यह नहीं सोचना चाहिए कि कोई चीज़ कैसे बनाई जा रही है बल्कि यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि उसका क्या इस्तेमाल हो सकता है."

इग्नासियो कोफ़ोन की राय है कि हमें तय करना चाहिए कि कौन से सामाजिक मूल्यों की सुरक्षा ज़रूरी है और उन्हें कब नुकसान हो सकता है.

डीपफ़ेक के नकारात्मक प्रभाव को देखते हुए यह रास्ता सही साबित हो सकता है.

इग्नासियो कोफ़ोन ने कहा कि डीपफ़ेक से जो दो प्रमुख नुक़सान होते हैं उनमें एक है ग़लत राजनीतिक जानकारी का प्रसार और दूसरा है डीपफ़ेक का पोर्नोग्राफी के लिए इस्तेमाल.

"किसी व्यक्ति का डीपफ़ेक इसलिए हानिकारक नहीं है क्योंकि वो फ़ेक है बल्कि इसलिए हानिकारक है क्योंकि वो असली या वास्तविक दिखाई देता है."

"इसलिए ख़ास तौर पर अश्लील डीपफ़ेक के संबंध में ऐसे ही कानून लागू होने चाहिए, जो उस विशिष्ट व्यक्ति के वास्तविक पॉर्न से होने वाले नुकसान से निपटने के लिए लागू होंगे."

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तो क्या डीपफ़ेक पर ऐसी पाबंदी लगाई जाए ताकि वो वास्तविक न लगें? इग्नासियो कोफ़ोन इससे सहमत नहीं हैं.

उनकी दलील है कि डीपफ़ेक का इस्तेमाल कई अच्छे कामों में भी होता है.

मिसाल के तौर पर एक इमारत कैसी दिख सकती है या फुटपाथों के निर्माण से एक शहर कैसा दिख सकता है, यह दिखाने के लिए भी डीपफ़ेक का इस्तेमाल होता है.

डीपफ़ेक पर नियंत्रण का बेहतर तरीका उसे डेटा प्रोटेक्शन और प्राइवेसी संबंधी क़ानूनों के दायरे में लाना भी हो सकता है.

डीपफ़ेक कंटेंट के प्रसारण में सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्मों की भूमिका के महत्व पर भी चर्चा होने लगी है.

इग्नासियो कोफ़ोन के अनुसार, सोशल मीडिया कंपनियों की ओर से इसे नियंत्रित किया जाना चाहिए. इस पर आम लोगों की राय तो बन रही मगर अमेरिका और कई दूसरे देश सोशल मीडिया पर नियंत्रण लगाने से हिचकिचा रहे हैं.

उन्होंने कहा, "सोशल मीडिया कंपनियां उसके यूज़र की प्रतिक्रिया के आधार पर कंटेंट को उनकी फ़ीड में ऊपर रखती हैं. जिस कंटेंट पर लोगों की भावनात्मक प्रतिक्रिया अधिक तीव्र होती है या जिससे रोष पैदा होता है उसे सामान्य कंटेंट के मुकाबले अधिक प्रमोट किया जाता है, या ज़्यादा दिखाया जाता है. इससे कंपनी को विज्ञापनों के ज़रिए अधिक फ़ायदा होता है. लेकिन अगर यह कंपनियां इस माध्यम से फ़ायदा कमा रही हैं तो इससे होने वाले नुक़सान का परिणाम भी उन्हें भुगतना चाहिए."

वैश्विक कानून

कोपनहेगन बिज़नेस स्कूल में कम्युनिकेशन्स और डिजिटल ट्रांसफ़ॉर्मेशंस के प्रोफ़ेसर मिकेल फ़्लीवरबॉम किसी भी व्यक्ति की ओर से अपने चेहरे का कॉपीराइट कराने के पक्ष में हैं.

वो मानते हैं कि भविष्य में आम लोग या संगठन इस विषय में टेक कंपनियों की जवाबदेही तय करने के लिए कदम उठा सकेंगे.

उनका मानना है कि भविष्य में सामान्य लोग, गुट या लोकतांत्रिक संस्थाएं टेक्नोलॉजी कंपनियों द्वारा इस्तेमाल की जा रही टेक्नोलॉजी के संबंध में उन्हें कई शर्तें मानने के लिए दबाव बना सकेंगी.

डीपफ़ेक की समस्या और उससे समाज को होने वाले नुक़सान से निपटने के लिए हमें डिजिटल टेक्नोलॉजी के प्रति अपने रवैये को बदलना पड़ेगा. मगर हमें क्या करना चाहिए ताकि नई टेक्नोलॉजी के विकास और लोगों की सुरक्षा के बीच संतुलन बना रहे?

मिकेल फ़्लीवरबॉम कहते हैं कि अमेरिका में यह दृष्टिकोण है कि टेक कंपनियों पर नियंत्रण लादने से व्यापार घटेगा और आय कम हो जाएगी.

मगर चीन और कई देशों में व्यापार और सुरक्षा के बीच संतुलन स्थापित करने पर नए सिरे से बहस हो रही है.

वहां समाज के मूल्यों, प्राथमिकताओं और टेक कंपनियों के कामकाज के बीच संतुलन पर चर्चा चल रही है.

इस साल अप्रैल में अमेरिकी संसद ने एक 'टेक इट डाउन क़ानून' पास कर दिया जिसके तहत बिना लोगों की अनुमति के उनके अंतरंग फ़ोटो या वीडियो प्रकाशित करने को अपराध माना जाएगा.

पिछले साल यूरोपीय संघ ने भी एक क़ानून बनाया जिसके तहत डीपफ़ेक पर स्पष्ट रूप से लेबल होना चाहिए कि वह वास्तविक नहीं बल्कि एआई की मदद से बनाया गया डीपफ़ेक है.

मिकेल फ़्लीवरबॉम ने कहा, "मेरे ख़्याल से अब संस्थाओं की ओर से टेक कंपनियों पर डीपफ़ेक के नियंत्रण के लिए दबाव बढ़ रहा है. इस संबंध में क़ानूनों के ज़रिए समाज में बच्चों की सुरक्षा और हमारे चेहरे और आवाज़ जैसी अंतरंग चीज़ों की सुरक्षा के लिए जागरूकता बढ़ रही है. अब इसे सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी आम लोगों के बजाय पुलिस और अदालतों को दी जा रही है."

मिकेल फ़्लीवरबॉम याद दिलाते हैं कि टेक्नोलॉजी लगातार बदलती रहती है. लार्ज लैंग्वेज मॉडल इंटरनेट से विशाल डेटा इकट्ठा करके उसे नया रूप देता है. उसे इसकी परवाह नहीं है कि वह सामग्री मूल रूप से किसने बनाई है.

मिकेल फ़्लीवरबॉम ने कहा कि हाल में जब जनरेटिव आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस विकसित किया गया तब इस बात को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर दिया गया कि वह डेटा दरअसल किसका है.

दूसरे उद्योगों में हमें ऐसा नहीं दिखाई देता कि किसी के इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट का बिना रोकटोक उल्लंघन करके अपना प्रोडक्ट बना लिया जाए.

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तो अब हम लौटते हैं अपने मुख्य प्रश्न की ओर- क्या अपने चेहरे का कॉपीराइट करने का समय आ गया है?

जैसा कि हमारे एक्सपर्ट कहते हैं- यह मामला इतना आसान भी नहीं है क्योंकि आपका चेहरा आपके द्वारा रचा नहीं गया है बल्कि वह आपको जन्म से ही मिला हुआ है.

लेकिन डीपफ़ेक के ज़रिए उसका ग़लत इस्तेमाल न हो, इसके लिए आप कदम ज़रूर उठा सकते हैं.

सबसे पहले तो आपको अपनी वीडियो और फ़ोटो शेयर करते समय सोचना चाहिए कि आप वह किसके साथ शेयर कर रहे हैं और क्या उसका ग़लत इस्तेमाल हो सकता है.

उस ग़लत इस्तेमाल को रोकने के लिए आप अपने देश के क़ानूनों के तहत क़दम भी उठा सकते हैं.

इसके साथ सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्मों और टेक कंपनियों की क़ानूनी ज़िम्मेदारी तय करना भी ज़रूरी है.

इसलिए शायद डेनमार्क जो क़दम उठाने की सोच रहा है, वह इस डीपफ़ेक की समस्या से निपटने की दिशा में एक सही क़दम हो सकता है.

इससे यह स्पष्ट संदेश मिलेगा कि हमारे चेहरे या अंतरंग तस्वीरों को टेक कंपनियां महज़ डेटा की तरह इस्तेमाल नहीं कर सकतीं और ना ही उसका ग़लत इस्तेमाल होना चाहिए.

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