रूस के विदेश मंत्री सेर्गेई लावरोव ने पिछले हफ़्ते कहा था कि पश्चिम के देश भारत और चीन को एक दूसरे के ख़िलाफ़ कर तनाव बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं.
ने कहा था, ''पश्चिम के देशों ने एशिया-पैसिफिक को इंडो-पैसिफिक कहना शुरू कर दिया है. स्पष्ट है कि पश्चिम चीन विरोधी नीति को हवा दे रहा है. यह हमारे अच्छे दोस्त भारत और पड़ोसी चीन के बीच टकराव बढ़ाने के लिए है. पश्चिम के देश इस इलाक़े में अपना प्रभुत्व जमाना चाहते हैं. पश्चिम की इसी नीति को राष्ट्रपति पुतिन ने 'बाँटो और राज करो' बताया था.''
यह पहली बार नहीं है, जब रूसी विदेश मंत्री ने भारत और चीन के संबंधों में पश्चिम की भूमिका की आलोचना की है.
इससे पहले दिसंबर 2020 में भी लावरोव ने कहा था, "पश्चिम एकध्रुवीय विश्व बहाल करना चाहता है. मगर रूस और चीन उसके मातहत नहीं होंगे. भारत अभी एशिया-पैसिफ़िक में क्वॉड जैसे पश्चिमी देशों के संगठन के कारण चीन-विरोधी नीति का एक मोहरा बना हुआ है. पश्चिम के देश रूस और भारत के संबंधों को भी कमज़ोर करना चाहते हैं."
क्वॉड में अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान और भारत हैं. रूस इसे चीन विरोधी गुट मानता है. चीन भी इसी रूप में देखता है.
इसी महीने जब भारत और पाकिस्तान एक दूसरे के इलाक़े में हमले कर रहे थे तो उम्मीद की जा रही थी कि क्वॉड के सदस्य देश भारत का समर्थन करेंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इसका एक तर्क यह भी दिया जाता है कि क्वॉड कोई सुरक्षा गठजोड़ नहीं है.
भारत के पूर्व डिप्लोमैट राजीव डोगरा कहते हैं कि लावरोव की टिप्पणी से ये मतलब निकाला जा सकता है कि वह भारत को आगाह कर रहे हैं लेकिन एशिया पैसिफिक को इंडो पैसिफिक कह देना इतनी बड़ी बात नहीं है.
राजीव डोगरा कहते हैं कि चीन तो आए दिन अरुणाचल प्रदेश के इलाक़ों का नाम बदलता रहता है.
राजीव डोगरा कहते हैं, ''फ़रवरी 2022 में यूक्रेन से जंग शुरू होने के बाद रूस पश्चिम को लेकर ज़्यादा आक्रामक हुआ है. ऐसे में रूस पश्चिम से दूसरे देशों के संबंधों को इस नज़रिए से भी देखता है.''
दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में रूसी और मध्य एशिया अध्ययन केंद्र के असोसिएट प्रोफ़ेसर डॉ राजन कुमार कहते हैं, ''लावरोव एक तरह से भारत को आगाह कर रहे हैं तो दूसरी तरफ़ रूस का डर भी है कि भारत की निर्भरता उस पर से ख़त्म ना हो जाए. सैन्य आपूर्ति के मामले में भारत की निर्भरता रूस पर कम हुई है. भारत सैन्य आपूर्ति के मामले में भी पश्चिम की ओर शिफ़्ट हो रहा है. आने वाले समय में यह ट्रेंड और बढ़ेगा.''
2009 से 2013 के बीच भारत का 76 प्रतिशत हथियार आयात रूस से था लेकिन 2019 से 2023 के बीच इसमें 36 प्रतिशत की गिरावट आई है.
यूक्रेन से जंग के दौरान रूस से भारत का व्यापार बढ़ा है लेकिन ये बढ़ोतरी भारत के ऊर्जा आयात के कारण है. पिछले साल दोनों देशों के बीच 66 अरब डॉलर का कारोबार हुआ था लेकिन इसमें 40 प्रतिशत रूसी तेल था और 36 फ़ीसदी रूसी हथियार.
डॉ राजन कुमार कहते हैं, ''पश्चिम को लगता है कि चीन को काबू में करना है तो भारत अहम देश है. दूसरी तरफ़ भारत को लगता है कि सीमा पर चीन की आक्रामकता को जवाब देना है तो पश्चिम की मदद ज़रूरी है. ऐसे में रूस के विदेश मंत्री मानते हैं कि पश्चिम भारत और चीन में तनाव पैदा करने की कोशिश कर रहा है.''
डॉ कुमार कहते हैं, ''भारत रूस पर निर्भर नहीं रह सकता है. अगर चीन का सामना करना है तो रूस इसमें मददगार साबित नहीं होगा. 1962 की जंग में रूस ने भारत की मदद नहीं की थी. अब रूस ख़ुद ही चीन का जूनियर पार्टनर बनकर रह गया है. रूस की निर्भरता चीन पर ज़्यादा है. ऐसे में यह संभव नहीं है कि भारत रूस के कहे पर पश्चिम से संबंध सीमित कर ले.''
डॉ राजन कुमार कहते हैं, "रूस जब सोवियत संघ था, तब भी इंडो पैसिफिक को एशिया पैसिफिक ही कहता था जबकि अमेरिका इंडो-पैसिफिक कहता रहा है.''
1962 में जब चीन ने भारत पर हमला किया था तो सोवियत संघ भारत का बहुत क़रीबी था. तब चीन और सोवियत संघ में तीसरी दुनिया को नियंत्रित करने के लिए प्रतिद्वंद्विता थी.
चीन बनाम रूसस्वीडिश लेखक बर्टिल लिंटनर ने अपनी किताब चाइनाज इंडिया वॉर में लिखा है, ''सोवियत संघ और चीन के बीच प्रतिद्वंद्विता की शुरुआत 1950 के दशक में शुरू होती है. 1960 में रोमानिया की कम्युनिस्ट पार्टी की कांग्रेस में तत्कालीन सोवियत नेता निकिता ख़्रुश्चेव और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो मेंबर पेंग चेन के बीच बहस हुई थी.''
''ख़्रुश्चेव ने माओ को एक राष्ट्रवादी, साहसी और विचलनवादी (साम्यवादी सिद्धांत से विचलित होने वाला) व्यक्ति बताया था. वहीं पेंग ने ख़्रुश्चेव को पुरुषवादी, स्वेच्छाचारी और निरंकुश कहा था. पेंग ने ख्रुश्चेव पर मार्क्सवाद और लेनिनवाद को धोखा देने का आरोप लगाया था. इसके जवाब में ख्रुश्चेव ने चीन से सोवियत संघ के 1400 एक्सपर्ट और टेक्निशियन वापस बुला लिए थे. ख़्रुश्चेव ने चीन में सोवियत संघ के 200 से ज़्यादा प्रोजेक्ट रद्द कर दिए थे."
बर्टिल लिंटनर ने लिखा है, ''चीन और भारत की जंग की शुरुआत में सोवियत संघ का रुख़ सतर्क था. हालांकि ख्रुश्चेव की सहानुभूति भारत के साथ थी लेकिन सोवियत संघ चीन की नाराज़गी भी मोल नहीं लेना चाहता था. दूसरी तरफ़ भारत के तत्कालीन रक्षा मंत्री वेंगालिल कृष्ण मेनन सोवियत संघ की तरफ़ झुकाव रखने वाले माने जाते थे लेकिन उन्हें 1962 की जंग की तैयारी नहीं करने के मामले में इस्तीफ़ा देना पड़ा था.''
मेनन ने 1962 में भारत-चीन युद्ध के बीच में ही इस्तीफ़ा दिया था. नेहरू ने अपने पास अस्थायी रूप से रक्षा मंत्रालय रखा था. सोवियत संघ भारत को युद्ध से पहले हथियार देता रहा था लेकिन युद्ध के दौरान दुविधा में था.
भारत-चीन संबंधों के विशेषज्ञ और पत्रकार मोहन राम ने लिखा था, "सोवियत संघ ने चीन से सैन्य कार्रवाई रोकने का अनुरोध किया था और मध्यस्थता की पेशकश की थी. भारत इसके लिए तैयार भी था. सोवियत संघ ने पूरी कोशिश की थी कि संकट की घड़ी में भारत को अमेरिका और ब्रिटेन के पाले में जाने से रोका जाए. भारत की सालों तक गुटनिरपेक्ष रहने की नीति औंधे मुँह गिरी और चीनी हमले के दौरान पूंजीवादी देशों से मदद लेनी पड़ी.''

मोहन राम ने अपनी किताब पॉलिटिक्स ऑफ चीन-इंडिया कन्फंट्रेशन में लिखा है कि भारत सरकार से कृष्ण मेनन के इस्तीफ़े को लेकर रूस चिंतित था.
मोहन राम ने लिखा है, ''सोवियत संघ को इस बात का अफ़सोस था कि चीनी हमले के कारण भारतीय नेताओं में से अपने एक विश्वसनीय दोस्त मेनन को खो दिया."
मोहन राम ने लिखा है, ''निकिता ख़्रुश्वेच 1959 में भारत-चीन सरहद पर झड़प के दौरान भी तटस्थ थे और इसे लेकर चीन बहुत नाराज़ था. जब 1962 में युद्ध शुरू हुआ तो चीन ने सोवियत संघ के नेताओं से बात की. चीन ने कहा कि भारतीय बुर्जुआ साम्राज्यवाद के अनुयायी हैं, इसलिए सोवियत संघ के नेताओं को उसकी निंदा करनी चाहिए. सोवियत ने ऐसा करने से इनकार कर दिया. 12 दिसंबर को जब युद्ध ख़त्म हुआ तो ख़्रुश्चेव भारत के समर्थन में आए और कहा, 'हम इस बात को ख़ारिज करते हैं कि भारत चीन के साथ युद्ध चाहता था.''
बर्टिल लिंटनर ने लिखा है कि चीन ने भारत को मजबूर कर दिया कि वह अमेरिका से मदद ले और दूसरी तरफ़ सोवियत संघ को भी चीन विरोधी कैंप में ला खड़ा किया. यह ऐसा मास्टरस्ट्रोक था, जिसने चीन को तीसरी दुनिया का नेता बना दिया.
डॉ राजन कुमार कहते हैं, ''जब सोवियत संघ और चीन के बीच प्रतिद्वंद्विता थी तब तो उसने भारत की मदद की नहीं. अब जब रूस चीन पर निर्भर है तब मदद की उम्मीद बेमानी है. कई ऐसे क्लासिफाइड दस्तावेज़ हैं, जिनसे पता चलता है कि नेहरू ने (1962 में) सोवियत संघ के नेता निकिता ख्रुश्चेव से मदद मांगी थी लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया था.''
''ऐसे में रूस भारत के पश्चिम के क़रीब जाने की शिकायत कैसे कर सकता है? प्रतिद्वंद्विता के बावजूद सोवियत संघ और चीन वैचारिक रूप से क़रीब थे और निकिता ख्रुश्चेव माओ को नाराज़ नहीं करना चाहते थे. तब कई लोगों ने विदेश नीति पर सवाल भी उठाना शुरू कर दिया था कि गुटनिरपेक्ष रहने का क्या फ़ायदा मिला?''
बर्टिल लिंटनर ने अपनी किताब में रोडरिक मैकफार्कुहार के हवाले से लिखा है, ''नेहरू ने ज़रूरत के वक़्त पश्चिम से मदद मांगी लेकिन नाकामी हाथ लगी. ऐसे में भारत की गुटनिरपेक्ष छवि, कम्युनिस्ट खेमे और तीसरी दुनिया दोनों में प्रभावित हुई.''
यूक्रेन के मामले में रूस चाहता है कि भारत पूरी तरह से उसके साथ रहे और पश्चिम चाहता है कि वह पूरी तरह से रूस के ख़िलाफ़ रहे. लेकिन भारत की कोशिश है कि वह संप्रभुता के उल्लंघन के ख़िलाफ़ भी दिखे और रूस के साथ भी.
पाकिस्तान के मामले में रूस के मौजूदा रुख़ को भी इसी आईने में देखा जा रहा है.
अमेरिका की शिकायत रहती है कि भारत रूसी छाया से बाहर नहीं निकल पा रहा है और रूस की शिकायत रहती है कि भारत पश्चिम के लिए चीन विरोधी मोहरा बन रहा है.
इसे भारत की बढ़ती प्रासंगिकता के रूप में भी देखा जा सकता है और अंतरराष्ट्रीय राजनीति की दुविधा के रूप में भी.
अप्रैल 2022 में अमेरिका के तत्कालीन उप-राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार दलीप सिंह भारत के दौरे पर आए थे और उन्होंने धमकी भरे अंदाज़ में कहा था कि चीन ने एलओसी पार किया तो रूस मदद के लिए नहीं आएगा.
इसी महीने जब भारत ने पाकिस्तान में सैन्य कार्रवाई की और पाकिस्तान ने पलटवार किया तो भारत के साथ न तो खुलकर पश्चिम खड़ा था और न ही रूस जबकि चीन पूरी तरह से पाकिस्तान के साथ खड़ा था.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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